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चतुर्थाध्यायस्य प्रथमः पादः उत्तमस्य समीपम् उपोत्तमम्, गुरु उपोत्तमं ययोस्ते गुरूपोत्तमे, तयो:गुरूपोत्तमयोः (अव्ययीभावगर्भितबहुव्रीहिः)।
अन्वय:-गोत्रेऽनार्षयोरणिजोर्गुरूपोत्तमयो: प्रातिपदिकयो: स्त्रियां ष्यङ् ।
अर्थ:-गोत्रे यावना अणिजौ प्रत्ययौ, तदन्तयोर्गुरूपोत्तमयो: प्रातिपदिकयो: स्थाने स्त्रियां ष्यङ् आदेशो भवति।
उदा०-करीषस्य गन्ध इव गन्धो यस्य स:-करीषगन्धिः । करीषगन्धेरपत्यं स्त्री-कारीषगन्ध्या। कुमुदस्य गन्ध इव गन्धो यस्य स:-कुमुदगन्धिः। कुमुदगन्धेरपत्यं स्त्री-कौमुदगन्ध्या। वराहस्यापत्यं स्त्री-वाराह्या। बलाकस्यापत्यं स्त्री-बालाक्या।
आर्यभाषा: अर्थ- (गोत्रे) गोत्रापत्य अर्थ में जो (अनार्यो) ऋषिवाची प्रातिपदिक से भिन्न विहित (अणिजौ) अण् और इञ् प्रत्यय हैं, (गुरूपोत्तमयोः) तदन्त प्रातिपदिकों का अन्तिम अक्षर से पूर्ववर्ती अक्षर गुरु हो तो उन प्रातिपदिकों से विहित उन अण् और इञ् प्रत्ययों के स्थान में 'प्यड्' आदेश होता है।
उदा०-उदाहरण संस्कृत भाग में देख लेवें। इनका अर्थ और सिद्धि (४।१।७४) के प्रवचन में देख लेवें।
सिद्धि-(१) करीषगन्ध्या। करीष+गन्ध । करीषगन्धि+अण् । करीषगन्ध+अ । कारीषगन्ध+प्यड्। कारीषगन्ध्य्+चाप् । कारीषगन्ध्या+सु। कारीषगन्ध्या।।
यहां करीषगन्धि' शब्द ऋषिवाची नहीं. अत: अनार्ष है, इससे गोत्रापत्य अर्थ में तस्यापत्यम्' (४।१।९२) से 'अण्' प्रत्यय और उसके स्थान में इस सूत्र से ष्य' आदेश होता है और तत्पश्चात् 'यङश्चाप्' (४।१।७४) से स्त्रीलिङ्ग में 'चाप्' प्रत्यय होता है।
विशेष-तीन वा अधिक अक्षरवाले शब्द के अन्तिम स्वर को उत्तम कहते हैं, उत्तम के समीपवर्ती स्वर को उपोत्तम कहा जाता है। यहां कारीषगन्ध' शब्द में अन्तिम स्वर 'अ' है और गकारवर्ती उपोत्तम 'अ' संयोगे गुरु' (१।४।११) से गुरु है। अत: कारीषगन्ध' शब्द गुरूपोत्तम है।
(२) वाराहा । वराह+इन् । वाराह-इ। वाराह+प्यङ्। वाराह्य+चाप् । वाराह्या+सु। वाराया।
यहां अनार्ष. गुरूपोत्तम वाराहि' शब्द में 'अत इ (४।१।९५) से गोत्रापत्य अर्थ में इञ्' प्रत्यय है। इस सूत्र से इञ्' प्रत्यय के स्थान में प्यङ्' आदेश होता है। यङश्चाप्' (४।१।७४) से स्त्रीलिङ्ग में चाप्' प्रत्यय होता है। ऐसे ही-बालाक्या आदि।
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