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________________ ६४ पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् अथ धातु-अधिकारः (१) धातोः ।११। प०वि०-धातो: ५।१। अर्थ:-धातोरित्यधिकारोऽयम्, आ तृतीयाध्यायपरिसमाप्तेः। यदित ऊर्ध्वं वक्ष्यामस्तद् धातोरिति वेदितव्यम्। वक्ष्यति-तव्यत्तव्यानीयर: (३।१।९६) इति। धातोस्ते भवन्ति-कर्त्तव्यम्, करणीयम् इति।। आर्यभाषा-अर्थ-(धातो:) तृतीय अध्याय की समाप्ति तक 'धातोः' का अधिकार है। इससे आगे जो कहेंगे उसे 'धातु से' जानना चाहिये। कहेगा-तव्यत्तव्यानीयर; (३।१।९६) । ये तव्यत्, तव्य, अनीयर् प्रत्यय धातु से होते हैं। जैसे-कर्त्तव्यम्, करणीयम् । सिद्धि-कर्त्तव्यम्, करणीयम् । इनकी सिद्धि यथास्थान (३।१।९६) की जायेगी। उपपदसंज्ञा (२) तत्रोपपदं सप्तमीस्थम् ।१२। प०वि०-तत्र अव्ययपदम्, उपपदम् १।१ सप्तमीस्थम् १।१। स०-सप्तम्यां तिष्ठतीति सप्तमीस्थम् (उपपदसमास:) । अन्वय:-तत्र सप्तमीस्थमुपपदम्। अर्थ:-तत्र-तस्मिन् धात्वधिकारे सप्तमीस्थं पदम् उपपदसंज्ञकं भवति। उदा०-'कर्मण्यण' (३।२।१) इति वक्ष्यति। कुम्भं करोतीति कुम्भकार: । नगरं करोतीति नगरकारः । इत्यादि। आर्यभाषा-अर्थ-(तत्र) उस धातु-अधिकार में जो (सप्तमीस्थम्) सप्तमी विभक्ति से निर्दिष्ट पद है उसकी (उपपदम्) उपपद संज्ञा होती है। उदा०-कर्मण्यण (३।२।१)। कर्म उपपद हो तो धातु से 'अण्' प्रत्यय होता है। कुम्भं करोतीति कुम्भकारः । जो कुम्भ (घड़ा) बनाता है वह कुम्भकार होता है। नगरं करोतीति नगरकारः। जो नगर बनाता है वह नगरकार होता है। सिद्धि-कुम्भकारः । कुम्भ+अम्+कृ+अण्। कुम्भ+कृ+अ। कुम्भ+का+अ। कुम्भकार+सु। कुम्भकारः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003297
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1997
Total Pages590
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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