SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 95
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् उदा०- (दुह्) दुग्धे गौ: स्वयमेव । गाय स्वयं ही दुही जारही है । अदुग्ध गौ: स्वयमेव । गाय स्वयं ही दुह गई । अदोहि गौ: स्वयमेव । पूर्ववत् । (स्तु) प्रस्तुते गौ: स्वयमेव । गाय स्वयं ही पावस रही है। प्रास्नोष्ट गौः स्वयमेव । गाय स्वयं ही पावस गई। (नम्) नमते दण्डः स्वयमेव । दण्ड स्वयं ही झुकता है । अनंस्त दण्डः स्वयमेव । दण्ड स्वयं ही झुक गया। सिद्धि - (१) दुग्धे । दुह्+लट् । दुह्+शप्+त। दुह्+0+त। दुघ्+ध । दुग्+धे । ८२ दुग्धे । यहां 'दुह प्रपूरणे' (अदा०प०) धातु से लट्-प्रत्यय, 'कर्तरि शब्' (३।१।६८) से ‘शप्' प्रत्यय, ‘अदिप्रभृदिभ्यः शप:' (२।४।७२) से शप्' का लुक् होता है। 'दादेर्धातोर्घः' (८ / २ / ३२ ) से दुह् के हू को घ्, 'झषस्तथोर्धोऽधः' (८।२।४७) से 'त' प्रत्यय को ध, 'झलां जश् झषि' (८/४/५२ ) से घ् को जश् (ग्) होता है। यहां कर्मकर्तरिवाच्य में 'सार्वधातुके यक्' ( ३ |१| ६७ ) से 'यक्' प्रत्यय नहीं हुआ । 'भावकर्मणो:' ( १ । ३ । १३) से आत्मनेपद होगया है । (२) अदुग्ध । दुह्+लुङ् । अट्+दुह्+च्लि+त् । अ+दुह्+क्स+त। अ+दुह्+०+त। अ+दुघ्+ध। अ+दुग्+ध । अदुग्ध । यहां पूर्वोक्त 'दुह' धातु से लुङ, इस सूत्र से 'चिण्' का प्रतिषेध होने से 'शल इगुपधादनिट: क्स:' (३ । १ । ४५ ) से कर्मकर्तृवाच्य में 'क्स' प्रत्यय होता है। लुग्वा दुहदिहलिहामात्मनेपदे इन्त्यें' (७/३/७३) से 'क्स' प्रत्यय का लुक् हो जाता है। (३) अदोहि । दुह्+लुङ् । अट्+दुह्+च्लि+ल् । अ+दुह्+चिण्+त। अ+दोह्+इ+0 । अदोहि । यहां पूर्वोक्त 'दुह्' धातु से 'लुङ्' प्रत्यय और 'दुहश्च' ( ३ | १ | ६३ ) विकल्प पक्ष में 'च्लि' प्रत्यय के स्थान में 'चिण्' आदेश हो जाता है। 'चिणो लुक्' (६ 1 ४ 1१०४) से 'त' प्रत्यय का लुक् होता है। (४) प्रस्तुते । प्र-उपसर्ग 'स्नु प्रस्रवणे' (अदा०प०) धातु से पद सिद्ध करें। (५) प्रास्नोष्ट । यहां पूर्वोक्त धातु से इस सूत्र से कर्मकर्तृवाच्य में चिण्' प्रत्यय का प्रतिषेध होने से लुङ्लकार में चिल' प्रत्यय के स्थान में 'च्ले: सिच्' (३।१/४४) से सिच् आदेश होता है। (६) नमते। 'णम प्रहृत्वे शब्दे (भ्वा०प०) कर्मवद्भाव से 'भावकर्मणोः' (१ । ३ । १३) से आत्मनेपद होता है। (७) अनंस्त । पूर्वोक्त 'नम' धातु से इस सूत्र से 'चिण्' प्रत्यय का प्रतिषेध होने से पूर्ववत् सिच्' प्रत्यय होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003297
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1997
Total Pages590
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy