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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् कर्मकर्तृवाच्य में यक्' प्रत्यय है और 'भावकर्मणो:' (१।३।१३) से आत्मनेपद होता है।
(२) अभेदि। यहां पूर्वोक्त कर्मस्थक्रिय धातु से इस सूत्र से कर्म (काष्ठम्) के कर्ता हो जाने से चिण भावकर्मणोः' (३।१।६६) से चिण्' प्रत्यय होता है। चिणो लुक्' (६।४।१०४) से आत्मनेपद त-प्रत्यय का लुक् हो जाता है।
(३) कारिष्यते । कृ+लृट् । कृ+स्य+त। का+इट्+स्य+त। का+इ+प्य+ते। कारिष्यते।
यहां डुकृञ् करणे' (तना०उ०) धातु से लृट् शेषे च' (३।३।१३) लृट् प्रत्यय, स्यतासी ललुटो:' (३।१।३३) से 'स्य' विकरण प्रत्यय, स्यसिच्सीयुट्तासिषु०' (६।४।६२) से चिण्वद्भाव होने से 'अचो णिति' (७।२।११५) से 'कृ' को वृद्धि और स्य' प्रत्यय को 'इट' आगम होता है।
विशेष-धातु के भेद-(१) जिन धातुओं का भाव (अर्थ) कर्ता में स्थित रहता है उन्हें कर्तृस्थभावक धातु कहते हैं। जैसे-देवदत्तो ग्रामं गच्छति। यहां गमनक्रिया कर्ता देवदत्त में होती है, ग्राम में नहीं, अत: गम्' धातु कर्तस्थभावक है। जिन धातुओं का भाव (अर्थ) कर्म में स्थित रहता है उन्हें कर्मस्थभावक धातु कहते हैं। जैसे-देवदत्त: काष्ठं भिनत्ति । यहां भेदन क्रिया कर्म काष्ठ में होती है, कर्ता देवदत्त में नहीं, अत: भिद्' धातु कर्मस्थभावक है। इस सूत्र से कर्मस्थभावक (कर्मस्थक्रिय) धातुओं का ही कर्ता कर्मवत् होता है, कर्तृस्थभावक (कर्तृस्थक्रिय) धातुओं का नहीं।
(२) कई वैयाकरण भाव और क्रिया में भेद मानकर धातुओं के कर्तस्थवाचक, कर्तस्थक्रिय और कर्मस्थभावक और कर्मस्थक्रिय ये चार भेद मानते हैं। उनका कहना है कि जो चेष्टारहित है वह भाव है, जैसे-आस्ते और जो चेष्टासहित है वह क्रिया' कहाती है। यह मन्तव्य पाणिनिमुनि के मन्तव्य के विरुद्ध है क्योंकि उन्होंने यस्य च भावेन भावलक्षणम्' (२।३।३७) आदि में चेष्टासहित धात्वर्थ को भाव कहा है।
(२) तपस्तपःकर्मकस्यैवा८८| प०वि०-तप: ६।१ तप:कर्मकस्य ६१ एव अव्ययपदम् । स०-तप: कर्म यस्य स तप:कर्मकः, तस्य तप:कर्मकस्य (बहुव्रीहि:)। अनु०-कर्तरि, ल:, कर्मवद् इति चानुवर्तते। अन्वय:-तप:कर्मकस्यैव तपो धातो: कर्ता कर्मवल्लकार्येषु। अर्थ:-तप:कर्मकस्यैव तपो धातो: कर्ता कर्मवद् भवति, ल-कार्येषु ।
उदा०-ब्रह्मचर्यादीनि तपांसि तापसं तपन्ति । दु:खयन्तीत्यर्थः । स तापसो व्रतैकमना: स्वर्गाय तपस्तप्यते। तपोऽर्जयतीत्यर्थः ।
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