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________________ ७८ पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् (३।४।११७) इति आशीर्लिङ: सार्वधातुकसंज्ञा वर्तते। स्थागागमिवचिविदिशकिरुहिधातव: प्रयोजयन्ति। उदा०-(स्था) उपस्थेयं वृषभं तुग्रियाणाम्। (गा) सत्यमुपगेयम् । (गमि) गृहं गमेम । (वचि) मन्त्रं वोचेमाग्नये। (विदि) विदेमेमां मनसि प्रविष्टाम् । (शकि) व्रतं चरिष्यामि तच्छकेयम् । (रुहि) स्वर्ग लोकमारुहेयम्। ___आर्यभाषा-अर्थ-(छन्दसि) वेदविषय में (धातोः) धातु से परे (अड्) अङ् प्रत्यय होता है, (कतरि) कर्तृवाची (सार्वधातुके) सार्वधातुक विषय में (आशिषि) इच्छार्थक (लिडि) लिङ्-प्रत्यय परे होने पर । यह शप् विकरण प्रत्यय का अपवाद है। 'छन्दस्युभयथा' (३।४।११७) से 'आशीर्लिङ्' की सार्वधातुक संज्ञा होती है। यहां स्था, गा, गम्, वच्, विद्, शक्, रुह धातुओं से ही अङ् विकरण प्रत्यय का विधान करना प्रयोजन है। ___ उदा०-(स्था) उपस्थेयं वृषभं तुप्रियाणाम् । मैं तुग्रियजनों के वृषभ को प्राप्त करूं, ऐसी इच्छा है। (गा) सत्यमुपगेयम् । मैं सत्य का गान करूं, ऐसी इच्छा है। (गमि) ग्रहं गमेम। हम घर चलें, ऐसी इच्छा है। (वचि) मन्त्रं वोचेमाग्नये । हम अग्नि देवता के लिये मन्त्र उच्चारण करें, ऐसी इच्छा है। (विदि) विदेमेमां मनसि प्रविष्टाम् । हम इस मन में प्रविष्ट हुई वासना को जानें, ऐसी इच्छा है। (शकि) व्रतं चरिष्यामि, तच्छकेयम् । मैं व्रत का आचरण करूंगा, मैं उसे कर सकूँ ऐसी इच्छा है। (रुहि) स्वर्ण लोकमारुहेयम्। मैं स्वर्गलोक में आरोहण करूं ऐसी इच्छा है। सिद्धि-(१) उपस्थेयम् । उप+स्था+लिङ्। उप+स्था+मिम्। उप+स्था+अड्+ यासुट्+अम्। उप+स्था+अ+यास्+अम्। उप+स्थ्+अ+इय्+अम्। उपस्थेयम्। यहां उप-उपसर्गपूर्वक छा गतिनिवृत्तौ' (भ्वा०प०) धातु से पूर्ववत् आशीर्लिङ्, 'तस्थस्थमिपां तान्तन्ताम:' (३।४।१०१) से मिप्' को अम्-आदेश और इस सूत्र से 'अङ्' विकरण प्रत्यय होता है। यासुट् परस्मैपदेषूदात्तो ङिच्च' (३।४।१०३) से यासुट्' आगम, लिङ: सलोपोऽनन्त्यस्य' (७।२।७९) से यासुट' के 'स्' का लोप, 'अतो येयः' (७।२।८०) से 'यासुट' के या को इय्-आदेश और 'आतो लोप इटि च (६।४।६४) से 'स्था' के आ का लोप होता है। . (२) गै शब्द (भ्वा०प०) 'गम्लु गतौ' (भ्वा०प०) वच् परिभाषणे (अदा०प०) विद् ज्ञाने' (अदा०प०) 'शक्ल शक्तौ' (रुधा०प०) रुह बीजजन्मनि प्रादुर्भावे च' (भ्वा०प०) धातु से शेष पदों की सिद्धि करें। इति विकरणप्रत्ययप्रकरणम् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003297
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1997
Total Pages590
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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