SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 89
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ७६ पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् शबादीनां व्यत्ययः (१८) व्यत्ययो बहुलम्।८५। प०वि०-व्यत्यय: १।१ बहुलम् १।१। अनु०-सार्वधातुके कतरि छन्दसि इति चानुवर्तते। अन्वय:-छन्दसि धातो: शबादीनां बहुलं व्यत्यय: । अर्थ:-छन्दसि विषये धातोः परेषां शबादीनां विकरण-प्रत्ययानां बहुलं व्यत्ययो भवति, कर्तृवाचिनि सार्वधातुके प्रत्यये परत: । व्यतिगमनं व्यत्यय:, व्यतिहार:, विषयान्तरे विधानमित्यर्थः । क्वचिद् द्विविकरणता, क्वचित् त्रिविकरणताऽपि भवति। उदा०-(भिद्) विकरणव्यत्यय:-अण्डा शुष्मस्य भेदति । भिनत्तीति प्राप्ते। (मृड) ताश्चिन्नु न मरन्ति । नियन्ते इति प्राप्ते। द्विविकरणताइन्द्रो वस्तेन नेषतु । नयतु इति प्राप्ते । त्रिविकरणता-इन्द्रेण युजा तरुषेम वृत्रम्। तरेम इति प्राप्ते। आर्यभाषा-अर्थ-छिन्दसि) वेदविषय में (धातो:) धातु से परे पूर्वोक्त शप आदि प्रत्ययों का (बहुलम्) बहुलता से (व्यत्यय:) व्यत्यय-विषयान्तर विधान होता है (कतीरे) कर्तृवाची (सार्वधातुके) सार्वधातुक प्रत्यय परे होने पर। उदा०-(भिद) विकरणव्यत्यय-अण्डा शुष्मस्य भेदति। भिनत्तीति प्राप्ते। वह शुष्म के अण्डों का भेदन करता है। यहां 'भेदति' के स्थान में भिनत्ति' प्रयोग प्राप्त था। (मड्) ताश्चिन्नु न मरन्ति । म्रियते इति प्राप्ते। क्या वे मरती नहीं है ? यहां 'मरन्ति' के स्थान में म्रियन्ते' प्रयोग प्राप्त था। दो विकरण प्रत्यय-इन्द्रो वस्तेन नेषतु। इन्द्र तुम्हें न ले जावे। यहां नेषतु' के स्थान पर नयतु' प्रयोग प्राप्त था। तीन विकरण प्रत्यय-इन्द्रेण युजा तरुषेम वृत्रम् । इन्द्र के सहयोग से हम वृत्र को पार करें, जीतें। यहां 'तरुषेम' के स्थान में तरेम' प्रयोग प्राप्त था। सिद्धि-(१) भेदति । भिद्+लट् । भिद्+शप्+तिम्। भेद्+अ+ति । भेदति । यहां भिदिर् विदारणे (रुधा०प०) धातु से इस सूत्र से विकरण व्यत्यय मानकर कर्तरि शप्' (३।१।६८) से 'शप्' विकरण प्रत्यय होता है। रुधादिभ्यः श्नम् (३।१।७८) से 'श्नम्' विकरण प्रत्यय होना चाहिये था-भिनत्ति । (२) मरन्ति । मृड्+लट् । मृ+शप्+झि। मृ+अ+अन्ति। मरन्ति। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003297
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1997
Total Pages590
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy