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तृतीयाध्यायस्य प्रथमः पादः शानच्-शायचौ
(१७) छन्दसि शायजपि।८४। प०वि०-छन्दसि ७१ शायच् ११ अपि अव्ययपदम्। अनु०-सार्वधातुके, कर्तरि, हल:, श्न:, शानच्, हौ इति चानुवर्तते।
अन्वय:-छन्दसि हलो धातोः श्न: शानच् शायजपि कर्तरि सार्वधातुके हौ। ____ अर्थ:-छन्दसि विषये हलन्ताद् धातो: परस्य श्ना-प्रत्ययस्य स्थाने शानच् शायजपि चाऽऽदेशो भवति, कर्तृवाचिनि सार्वधातुके हि-प्रत्यये परत:।
उदा०-(बध्) शानच्-बधान देव सवितः । (ग्रह) गृभाय जिया मधु ।
आर्यभाषा-अर्थ- (छन्दसि) वेदविषय में (हल:) हलन्त (धातोः) धातु से परे (श्न:) इना-प्रत्यय के स्थान में (शानच्) शानच् आदेश और (शायच्) शायच् आदेश (अपि) भी होता है। (कतीरे) कर्तृवाची (सार्वधातुके) सार्वधातुक (हौ) हि प्रत्यय परे होने पर।
उदा०-(बध्) शानच्-बधान देव सवित: । हे सविता देव ! तू बांध। (ग्रह) गृभाय जिहया मधु । तू जिहा से मधु ग्रहण कर।
सिद्धि-(१) बधान । ब+लोट् । बध्+श्ना+सिप् । बध्+शानच्+हि । बध्+आन+० । बधान।
यहां बध बन्धने (क्रया०प०) से सार्वधातुक सिप्' प्रत्यय परे होने पर इस सूत्र से श्ना' प्रत्यय के स्थान में 'शानच्’ आदेश है। सेटपिच्च' (३।४।८७) सिप' के स्थान में 'हि' आदेश होता है और 'अतो हे:' (६।४।१०५) से 'हि' प्रत्यय का लुक् हो जाता है।
(२) गृभाय । ग्रह+लोट् । ग्रह+श्ना+सिप्। ग्र+शायच्+हि। ग्रह+आय+0 गृ भ+आय। गृभाय।
यहां 'ग्रह उपादाने (क्रया०प०) धातु से सार्वधातुक तिप्' प्रत्यय परे होने पर इस सूत्र से 'श्ना' प्रत्यय के स्थान में 'शायच्' आदेश होता है। से पिच्च' (३।४।८७) से 'सिप' के स्थान में हि' आदेश और 'अतो हे:' (६।४।१०५) से 'हि' का लुक् होता है। अहिज्या०' (६।१।१६) से 'ग्रह' को सम्प्रसारण (गृह) और वा०-हमहोर्भश्छन्दसि हस्येति वक्तव्यम्' (८।२।३५) से 'गृह' के ह को भ् आदेश होता है।
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