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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् क्स' आदेश का लुक होता है। 'झषस्तथोोऽध:' (८।२।४०) से त' को 'ध' और झलां जश् झषि (८।४।५२) से घ् को जश् (ग) होता है। चिण-प्रतिषेधः
(२२) न रुधः।६४। प०वि०-न अव्ययपदम्, रुध: ५।१। स०-चिण, ते, कर्मकर्तरि इति चानुवर्तते । अन्वय:-रुधो धातोश्च्लेश्चिण न कर्मकर्तरि लुङि ते।
अर्थ:-रुधो धातो: परस्य च्लिप्रत्ययस्य स्थाने चिण आदेशो न भवति, कर्मकर्तृवाचिनि लुङि ते प्रत्यये परतः ।
उदा०-अवारुद्ध गौ: स्वयमेव।
आर्यभाषा-अर्थ- (रुधः) रुध् (धातो.) धातु से परे (प्ले:) चिल-प्रत्यय के स्थान में (चिण) चिण आदेश (न) नहीं होता है (कर्मकीर) कर्मकर्तावाची (लुङि) लुङ्लकार में (ते) त' प्रत्यय परे होने पर।
उदा०-(रुध्) अवारुद्ध गौः स्वयमेव । गौ गोष्ठ में स्वयं ही बन्द होगई।
सिद्धि-अवारुद्ध । 'रुधिर् आवरणे' (रुधा०उ०) इस धातु से परे 'च्लि' प्रत्यय के स्थान में चिण्' आदेश नहीं होता है, अपितु च्ले: सिच्' (३।१।४४) से सिच्' आदेश होता है। 'झलो झलि' (८।२।२६) से सिच् का लोप हो जाता है। झषस्तथोोऽध:' (८।२।४०) से 'त' को 'ध' और 'झलां जश् झषि (८।४।५२) से रुध्' के धू को जश् (द्) होता है।
विशेष- 'कर्मवत् कर्मणा तुल्यक्रियः' (३।१।८) से कर्ता को कर्मवद्भाव का विधान किया गया है। उससे कर्मवद्भाव होकर चिण भावकर्मणो:' (३।१।६६) से कर्मकर्ता में 'रुध्' धातु से परे च्लि' प्रत्यय के स्थान में चिण्' आदेश प्राप्त होता है। इस सूत्र से उसका पूर्वविप्रतिषेध किया गया है। चिण-प्रतिषेधः
__ (२३) तपोऽनुतापे च।६५ । प०वि०-तप: ५।१ अनुतापे ७१ च अव्ययपदम्। अनुताप:= पश्चात्ताप:, तस्मिन्-अनुतापे।
अनु०-चिण, ते, कर्मकीर न इति चानुवर्तते । अन्वय:-तपो धातोश्च्लेश्चिण् न, कर्मकर्तरि अनुतापे च लुङि ते।
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