________________
तृतीयाध्यायस्य प्रथमः पादः
५६
उदा०
- (कृ) अकारि कट: स्वयमेव (चिण् ) । अकृत कट: स्वयमेव ( सिच्) । चटाई स्वयं ही बन गई। (लू) अलावि केदारः स्वयमेव ( चिण् ) । अलविष्ट केदार: स्वयमेव । खेत स्वयं ही कट गया।
सिद्धि-(१) अकारि। यहां 'डुकृञ् करणें' (तना० उ० ) इस अजन्त धातु से 'चिल' प्रत्यय के स्थान में 'चिण्' आदेश है। 'अचो ञ्णिति' (७/२ ।११५) से 'कृ' धातु को वृद्धि (कार) होती है। 'चिणो लुक्' (६|४|१०४) से 'त' प्रत्यय का लुक् हो जाता है. 1
(२) अकृत | यहां अजन्त 'कृ' धातु से विकल्प पक्ष में 'च्लि' प्रत्यय के स्थान में 'च्ले: सिच्' (३।१।४४) से सिच्' आदेश होता है। 'ह्रस्वादङ्गात्' (८/२/२७) से 'सिच्' का लोप हो जाता है।
(३) अलावि । अलविष्ट । 'लूञ् छेदने' (क्रया० उ० ) धातु से पूर्ववत् सिद्ध करें । चिण्- विकल्प:
(२१) दुहश्च । ६३ ।
प०वि० दुहः ५ ।१ च अव्ययपदम् ।
अनु० - चिण्, ते, कर्मकर्तरि अन्यतरस्याम् इति चानुवर्तते । अन्वयः-दुहश्च धातोश्च्लेरन्यतरस्याम् चिण् कर्मकर्तरि लुङि ते । अर्थ:- हो धातोः परस्य चिलप्रत्ययस्य स्थाने विकल्पेन चिण आदेशो भवति, कर्मकर्तृवाचिनि लुङि ते प्रत्यये परतः । पक्षे क्स - आदेशो भवति । उदा०- ( दुह्) अदोहि गौ: स्वयमेव (चिण्) । अदुग्ध गौ: स्वयमेव (क्स) ।
आर्यभाषा - अर्थ - (दुहः) दुह् (धातो: ) धातु से परे (च्ले:) चिल-प्रत्यय के स्थान में ( अन्यतरस्याम्) विकल्प से ( चिण् ) चिण् आदेश होता (कर्मकर्तीर) कर्मकर्तावाची (लुङि) लुङ्लकार में (त) 'त' प्रत्यय परे होने पर ।
उदा०- -(दुह्) अदोहि गौ: स्वयमेव ( चिण्) । गौ स्वयं ही दुही गई । अदुग्ध गौ: स्वयमेव ( क्स)| अर्थ पूर्ववत् ।
सिद्धि-(१) अदोहि | 'दुह प्रपूरणे' (अदा० उ० ) धातु से इस सूत्र से चिल' प्रत्यय के स्थान में 'चिण्' आदेश होता है । पुंगन्तलघूपधस्य च' (७/३/८६ ) से 'दुह्' की उपधा को गुण होता है । 'चिणो लुक्' (६ । ४ । १०४) से 'त' प्रत्यय का लुक् हो जाता है। (२) अदुग्ध । यहां पूर्वोक्त 'दुह' धातु से विकल्प पक्ष में इस सूत्र से 'च्लि' प्रत्यय के स्थान में 'शल इगुपधादनिट: क्स:' ( ३ । १ । ४५) से 'क्स' आदेश होता है। 'क्सस्याचि' (७/३/७२ ) की अनुवृत्ति में 'लुग् वा दुहूदिहलिहामात्मनेपदे दन्त्ये (७ / ३ /७३) से
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org