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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् (समझा)। (पूरि) पूर्-अपूरि, अपूरिष्ट वा । उसने पूर्ण किया (भरा)। (तायि) ताय-अतायि, अतायिष्ट वा । उसने फैलाया अथवा पालन किया। (प्यायि) प्याय्-अप्यायि, अप्यायिष्ट वा। वह बढ़ा।
सिद्धि-(१) अदीपि । 'दीपी दीप्तौ' (दि०आ०) धातु से चिल' के स्थान में चिण्' आदेश है। 'चिणो लुक्' (६।४।१०४) से 'त' प्रत्यय का लुक् (लोप) हो जाता है।
(२) अदीपिष्ट । यहां पूर्वोक्त धातु से 'च्लि' प्रत्यय के स्थान में विकल्प पक्ष में च्ले: सिच्' (३।१।४४) से 'सिच्’ आदेश है। आदेशप्रत्यययो:' (८१३१५९) से 'सिच्’ के स् को षत्व और 'ष्टुना ष्टुः' (८।४।४०) से 'त' प्रत्यय को ष्टुत्व (ट) होता है।
(३) जनी प्रादुर्भाव (दि०आ०)। बुध अवगमने (दि०आ०)। पूरी आप्यायने (दिआ०)। 'ताय सन्तानपालनयो:' (भ्वा०आ०)। 'ओप्यायी वृद्धौ' (भ्वा०आ०) इन धातुओं से पूर्वोक्त दीप' धातु के समान रूप सिद्ध करें। चिण्-विकल्पः
(२०) अचः कर्मकर्तरि।६२। प०वि०-अच: ५।१ कर्मकर्तरि ७।१।
स०-कर्म चासौ कर्ता इति कर्मकर्ता, तस्मिन्-कर्मकर्तरि (कर्मधारयतत्पुरुषः)।
अनु०-चिण् ते, अन्यतरस्याम् इति चानुवर्तते। अन्वय:-अचो धातोश्च्लेरन्यतरस्यां चिण् कर्मकर्तरि लुङि ते।
अर्थ:-अजन्ताद् धातो: परस्य चिलप्रत्ययस्य स्थाने विकल्पेन चिण् आदेशो भवति कर्मकर्तृवाचिनि लुङि ते प्रत्यये परत: । पक्षे सिच् आदेशो भवति।
उदा०-(कृ) अकारि कट: स्वयमेव (चिण्) । अकृत कट: स्वयमेव (सिच्) । (लू) अलावि केदार: स्वयमेव (चिण)। अलविष्ट केदार: स्वयमेव (सिच्)।
आर्यभाषा-अर्थ-(अच:) अच् जिसके अन्त में है उस (धातो:) धातु से परे (च्ले:) च्लि प्रत्यय के स्थान में (अन्यतरस्याम्) विकल्प से (चिण्) चिण आदेश होता है (कर्मकतरि) कर्मकर्तावाची (लुङि) लुङ्लकार में (त) 'त' प्रत्यय परे होने पर ।
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