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तृतीयाध्यायस्य प्रथमः पादः अर्थ:-तपो धातो: परस्य च्लिप्रत्ययस्य स्थाने चिण आदेशो न भवति, कर्मकर्तरि अनुतापे चार्थे लुडि ते प्रत्यये परत: । अनेन चिणादेशे प्रतिषिद्धे उत्सर्ग: सिच्-आदेशो भवति ।
उदा०-(कर्मकर्तरि) तप-अतप्त तपस्तापस: । (पश्चात्तापे) रावणेनाऽन्वातप्त पापेन कर्मणा।
____ आर्यभाषा-अर्थ-(तपः) तप (धातो:) धातु से परे (च्ले:) चिल-प्रत्यय के स्थान में (चिण्) चिण आदेश (न) नहीं होता है (कर्मकतरि) कर्मकर्ता (च) और (अनुतापे) पश्चात्ताप अर्थ में (लुङि) लुङ्लकार में (ते) त-प्रत्यय परे होने पर।
उदा०-(कर्मकर्ता) तप्-अतप्त तपस्तापसः । तपस्वी ने स्वर्ग आदि की प्राप्ति के लिये तप-ज्ञानविशेष का अर्जन किया। (पश्चात्ताप) तप्-रावणेनाऽन्वातप्त पापेन कर्मणा। रावण के द्वारा पाप कर्म के कारण पश्चात्ताप किया गया।
सिद्धि-(१) अतप्त। 'तप सन्तापे' (भ्वा०आ०) धातु से इस सूत्र से कर्मकर्तृवाच्य में चिल' प्रत्यय के स्थान में चिण्' आदेश का प्रतिषेध है, अत: च्ले: सिच्' (३।१।४०) ' से सिच्’ आदेश होता है। 'झलो झलि' (८।२।२६) से 'सिच्' का लोप हो जाता है।
विशेष-(१) यहां तपस्तपकर्मकस्यैव' (३।१।८८) से तप धातु के कर्ता का कर्मवद्भाव होता है। कर्मवद्भाव होने से चिण भावकर्मणोः' (३।१।६६) से चिल' प्रत्यय के स्थान में चिण' आदेश प्राप्त था, इस सूत्र से उसका पूर्व प्रतिषेध किया गया है।
(२) तपांसि तापसमतपन्त। यहां तापस कर्म है वह 'अतप्त तपस्तापस:' में कर्ता बन गया है। अत: यह कर्मकर्ता है।
(३) रावणेनाऽन्वातप्त पापेन कर्मणा । यहां तप' धातु से भाववाच्य में लुङ् लकार है। चिण भावकर्मणो:' (३।११६६) से भाववाच्य में 'च्लि' प्रत्यय के स्थान में चिण्' आदेश प्राप्त था, उसका इस सूत्र से पूर्वप्रतिषेध किया गया है। चिण्
(२४) चिण भावकर्मणोः ।६६। प०वि०-चिण् १।१ भाव-कर्मणो: ७।२।
स०-भावश्च कर्म च ते भावकर्मणी, तयोः भावकर्मणो: (इतरेतरयोगद्वन्द्वः)।
अनु०-ते इत्यनुवर्तते। अन्वय:-धातोश्च्लेश्चिण भावकर्मणोलुंङि ते।
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