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तृतीयाध्यायस्य प्रथमः पादः उदा०-(सर्ति) सृ-असरत् । वह फैल गया। (शास्ति) शास्-अशिषत् । उसने शिक्षा की। (अर्ति:) ऋ-आरत् । उसने गति की अथवा पहुंचाया।
सिद्धि-(१) असरत् । स गतौ' (भ्वा०प०) धातु से 'च्लि' प्रत्यय के स्थान में 'अङ्' आदेश है। 'सार्वधातुकार्धधातुकयोः' (७।३।८४) से प्राप्त गुण का डिति च (१।१ ।५) से निषेध हो जाता है किन्तु अङ्' परे होने पर 'ऋदृशोऽङि गुणः' (७ ।४ ।१६) से सृ को गुण (सर्) होता है।
(२) अशिषत् । शासु अनुशिष्टौ' (अदा०प०) से 'च्लि' प्रत्यय के स्थान में 'अङ्' आदेश है। अङ् परे होने पर शास इदहलो:' (६।४।३४) से 'शास्’ को इ आदेश (शिस्) और 'शासिवसिघसीनां च' (८।३।६०) से षत्व (शिष्) होता है।
(३) आरत् । 'ऋ गतिप्रापणयो:' (भ्वा०प०) धातु से 'च्लि' के स्थान में 'अङ्' आदेश है। 'सार्वधातुकार्धधातुकयोः' (७।३।८४) से प्राप्त गुण का 'क्डिति च (१।१५) से निषेध हो जाता है किन्तु अङ् परे होने पर ऋदृशोऽडि गुणः' (७।४।१६) से ऋ धातु को गुण (अर्) होता है। 'आडजादीनाम्' (६।४।७२) से ऋ धातु को आट् आगम होता है। अङ्-विकल्पः
(१५) इरितो वा ।५७। प०वि०-इरित: ५।१ वा अव्ययपदम् । स०-इर् इत् यस्य स इरित्, तस्मात्-इरित: (बहुव्रीहि:)। अनु०-कर्तरि, अङ् इति चानुवर्तते। अन्वय:-इरितो धातोश्च्लेर्वाऽङ् कर्तरि लुङि।
अर्थ:-इरितो धातो: परस्य च्लिप्रत्ययस्य स्थाने विकल्पेनाऽङ् आदेशो भवति, कर्तृवाचिनि लुङि परत:।
उदा०-(भिदिर्) भिद् अभिदत, अभैत्सीत् वा। (छिदिर्) छिद्-अच्छिदत्, अच्छत्सीत् वा।
आर्यभाषा-अर्थ-(इरितः) जिसका 'इर्' इत् है उस (धातो:) धातु से परे (प्ले:) च्लि' प्रत्यय के स्थान में (वा) विकल्प से (अङ्) अड् आदेश होता है (कतरि) कर्तवाची (लुङि) लुङ् प्रत्यय होने पर।
उदा०-(भिदिर) भिद-अभिदत, अभैत्सीत वा । उसने विदारण किया (फाड़ा)। (छिदिर्) छिद्-अच्छिदत्, अच्छेत्सीत् वा। उसने छेदन किया (काटा)।
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