________________
पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् उदा०-(पुषादि) पुष्-अपुषत् । वह पुष्ट होगया। शुष-अशुषत् । वह सूख गया। (धुतादि) द्युत-अद्युतत् । वह चमका। श्विता-अश्वितत् । वह सफेद होगया। (लुदित्) गम्लु-अगमत् । वह गया। शक्ल-अशकत्। वह कर सका।।
सिद्धि-(१) अपुषत् । 'पुष् पुष्टौं' (दि०प०) धातु से चिल' प्रत्यय के स्थान में 'अङ्' आदेश है।
(२) अशुषत् । शुष शोषणे' (दि०प०) पूर्ववत् ।
(३) अद्युतत्। 'द्युत दीप्तौ' (भ्वा०आ०) द्युत आदि गण की धातु आत्मनेपद है युट्यो लुङि' (१।३।९१) से लुङ् में परस्मैपद होता है।
(४) अश्वितत् । श्विता वर्णे' (भ्वा०आ०)। पूर्ववत् परस्मैपद है। 'आतो लोप इटि च' (६।४।६४) से शिवता के आ का लोप होता है।
(५) अगमत् । 'गम्ल गतौ' (भ्वा०प०) उपदेशेऽजनुनासिक इत' (१।३।२) से लु' की इत् संज्ञा होती है। लुदित् होने से चिल' प्रत्यय के स्थान में 'अङ्' आदेश होता है।
(६) अशकत्। शक्ल शक्तौं' (स्वा०प०) पूर्ववत् ।
विशेष-पुषादिगण पाणिनीय धातुपाठ के दिवादिगण के और द्युतादिगण भ्वादिगण के अन्तर्गत हैं। वहां देख लेवें। अङ्
(१४) सर्तिशास्त्यर्तिभ्यश्च।५६ । प०वि०-सर्ति-शास्ति-अर्तिभ्य: ५ ।३ च अव्ययपदम् ।
स०-सर्तिश्च शास्तिश्च अर्तिश्च ते-सर्तिशास्त्यर्तयः, तेभ्य:सर्तिशास्त्यर्तिभ्यः (इतरेतरयोगद्वन्द्व:)।
अनु०-कर्तरि, अङ् इति चानुवर्तते। अन्वय:-सर्तिशास्त्यर्तिभ्यश्च धातुभ्यश्च्लेरङ् कर्तरि लुङि।
अर्थ:-सर्तिशास्त्यर्तिभ्यो धातुभ्यश्च परस्य च्लिप्रत्ययस्य स्थानेऽङ् · आदेशो भवति, कर्तृवाचिनि लुङि परत:।
उदा०-(सर्ति:) सृ-असरत् । (शास्ति:) शास्-अशिषत् । (अर्ति:) ऋ-आरत्।
___ आर्यभाषा-अर्थ-(सर्तिशास्त्यर्तिभ्यः) सर्ति, शास्ति, अर्ति (धातोः) धातुओं से परे (च) भी (च्ले:) चिल-प्रत्यय के स्थान में (अङ्) अङ् आदेश होता है (कतीर) कर्तृवाची (लुङि) लुङ् प्रत्यय परे होने पर।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org