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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम्
सिद्धि - (१) अदधत् । 'धेट् पाने' (भ्वा०प०) । यहां आदेच उपदेशेऽशिति (६/१/४४) से धातु को आ-आदेश (धा) होता है। 'अभ्यासे चर्च' (८|४|५३) से अभ्यास के ध को जश् (द्) होता है।
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(२) अधात् । यहां विभाषा 'प्राधेट्शाच्छासः' (२।४।७८) से सिच्' प्रत्यय का लुक् होगया है !
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(३) अधासीत् । यहां विकल्प पक्ष में 'सिच्' प्रत्यय का लुक् नहीं है। 'अस्तिसिचोऽपृक्ते' (७/३/९६) से ईटू आगम है।
(४) अशिश्वियत् । 'टुओश्वि गतिवृद्धयो:' (भ्वा०प० ) । यहां 'चङ्' में 'क्ङिति च ' (१1१14 ) से प्राप्त गुण का निषेध हो जाने पर 'अचिश्नु०' (६ । ४ ।७७) से 'श्वि' को 'इयङ्' आदेश होता है।
(५) अश्वत्। यहां 'जृस्तम्भु०' (३ 1१1५८) से विकल्प पक्ष में 'च्लि' के स्थान में 'अ' आदेश होता है । अङ् परे होने पर 'श्वयतेर:' (७।४।१८) से श्वि को अकार अन्तादेश होता है। उसे 'अतो गुणे' (६ 1१1९५ ) से पररूप हो जाता है।
(६) अश्वयीत्। यहां विकल्प पक्ष में 'च्लि' प्रत्यय के स्थान में 'सिच्' आदेश है। 'ह्मयन्तक्षणश्वस०' (७।२14 ) से 'सिच्' में वृद्धि का प्रतिषेध होने पर 'शिव' को 'सार्वधातुकार्धधातुकयोः' (७।३।८४) से गुण होता है । चङ्-विकल्पः
(८) गुपेश्छन्दसि । ५० ।
प०वि०-गुपेः ५।१ छन्दसि ७।१।
अनु० - कर्तरि चङ्, विभाषा इति चानुवर्तते । अन्वयः-छन्दसि गुपेर्धातोश्च्लेर्विभाषा चङ् कर्तरि लुङि । अर्थः-छन्दसि विषये गुपेर्धातोः परस्य चिलप्रत्ययस्य स्थाने विकल्पेन चङ् आदेशो भवति, कर्तृवाचिनि लुङि परतः ।
उदा०- - (गुप्) इमान् नो मित्रावरुणौ गृहान् अजूगुपतम्। भाषायाम्अगौप्तम्, अगोपिष्टम्, अगोपायिष्टम् इति रूपत्रयं भवति ।
आर्यभाषा-अर्थ-(छन्दसि) वेदविषय में (गुपे:) गुप् (धातोः) धातु से परे (च्ले:) च्लि प्रत्यय के स्थान में (विभाषा) विकल्प से (चङ) चङ् आदेश होता है ( कर्तरि ) कर्तृवाची (लुङि) लुङ् प्रत्यय परे होने पर।
उदा०- - (गुप्) इमान् नो मित्रावरुणौ गृहान् अजूगुपतम् । हे मित्र और वरुण तुम दोनों ने हमारे इन गृहजनों की रक्षा की। भाषा में ये तीन रूप होते हैं - अगौप्तम् । अगोपिष्टम् । अगोपायिष्टम् । तुम दोनों ने रक्षा की।
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