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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् (२) करवाव। यहां लोटो लङ्वत्' (३।४।८५) से लङ्वद्भाव होने से स उत्तमस्य (३।४।९८) से 'वस्' प्रत्यय के 'स्' का लोप होता है। शेष कार्य पूर्ववत् है। ऐसे ही-करवाम।
(३) करवै। कृ+लोट् । कृ+उ+इट् । कृ+उ+आट्+इ। कृ+उ+आ+ए। कर्+ओ+आ+ऐ। कर+ओ+ऐ। करवै।
यहां पूर्वोक्त क' धातु से पूर्ववत् लोट्' प्रत्यय का लादेश उत्तम पुरुष एक वचन का 'इट्' प्रत्यय है। इस सूत्र से उसे 'आट्' आगम होता है। 'टित आत्मनेपदानां टेरे' (३।४।७९) से 'इट्' के 'टि' भाग को 'ए' आदेश और उसे 'एत ऐं' (३।४।९३) से ए' आदेश और 'आटश्च' (६।११८७) से वृद्धि रूप एकादेश (आ+ऐऐ। होता है। शेष कार्य पूर्ववत् है। ऐसे ही-करवावहै, करवामहै । ऐ-आदेशः
(६) एत ऐ।६३। प०वि०-एत: ६१ ऐ ११ (लुप्तप्रथमानिर्देश:) । अनु०-लस्य लोट इति चानुवर्तते। अन्वय:-धातोर्लोटो लस्य एत ऐः।
अर्थ:-धातो: परस्य लोट्सम्बन्धिनो लादेशस्य एकारस्य स्थाने ऐकार आदेशो भवति।
उदा०-अहं करवै। आवां करवावहै। वयं करवामहै।
आर्यभाषा-अर्थ-(धातो:) धातु से परे (लोट:) लोट् सम्बन्धी (लस्य) लादेश के (एत:) एकार के स्थान में (ए) ऐ-आदेश होता है।
उदा०-अहं करवै । मैं करूं। आवां करवावहै । हम दोनों करें। वयं करवामहै। हम सब करें। सिद्धि-करवै । पूर्ववत् (३।४।९२)।
लेट्-आदेशागमप्रकरणम् अट्-आटावागमौ
(१) लेटोऽडाटौ।६४। प०वि०-लेट: ६।१ अट्-आटौ १।२। स०-अट् च आट् च तौ-अडाटौ (इतरेतरयोगद्वन्द्वः) ।
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