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तृतीयाध्यायस्य चतुर्थः पादः
५४१ (२) पचध्वम् । पच्+लोट् । पच्+शप्+ध्वम्। पच्+अ+ध्वे । पच्+अ+ध्व् अम्। पचध्वम्।
यहां 'लोट्' प्रत्यय के लादेश 'ध्वम्' प्रत्यय के टि' भाग को पूर्ववत् 'ए' आदेश होता है। उस ध्वे' आदेश के वकार से परवर्ती एकार के स्थान में इस सूत्र से 'अम्' आदेश होता है। आट्-आगमः
(७) आडुत्तमस्य पिच्च ।६२। प०वि०-आट ११ उत्तमस्य ६१ पित् १।१ च अव्ययपदम् । अनु०-लस्य, लोट इति चानुवर्तते। अन्वयः-धातोर्लोटो लस्योत्तमस्याऽऽट् पिच्च।
अर्थ:-धातो: परस्य लोट्सम्बन्धिनो लादेशस्योत्तमपुरुषस्याऽऽडागमो भवति, स चोत्तमपुरुष: पिद् भवति।
उदा०-(परस्मैपदम्) अहं करवाणि। आवां करवाव । वयं करवाम । (आत्मनेपदम्) अहं करवै। आवां करवावहै। वयं करवामहै।
आर्यभाषा-अर्थ--(धातोः) धातु से परे (लोट:) लोट्सम्बन्धी (लस्य) लादेश के (उत्तमस्य) उत्तम पुरुष को (आट्) आट् आगम होता है (पिच्च) और वह उत्तम पुरुष पित् होता है।
उदा०-(परस्मैपद) अहं करवाणि । मैं करूं। आवां करवाव । हम दोनों करें। वयं करवाम । हम सब करें। (आत्मनेपद) अहं करवै। मैं करूं। आवां करवावहै । हम दोनों करें। वयं करवामहै। हम सब करें।
सिद्धि-(१) करवाणि । कृ+लोट् । कृ+उ+मिप् । कृ+उ+नि। कृ+उ+आट्+नि। कर+ओ+आ+नि। करवाणि।
यहां 'इकन करणे' (तना०3०) धातु से पूर्ववत् 'लोट्' प्रत्यय के उत्तम पुरुष एकवचन के लादेश 'मिप्' प्रत्यय है, उसे मेनि:' (३।४।८९) से नि' आदेश होता है। इस सूत्र से उसे 'आट्' आगम होता है। तनादिकृऋभ्य उ:' (३।१।७९) से 'उ' विकरण प्रत्यय होता है। उत्तम पुरुष के पित्' होने से सार्वधातुकमपित' (१।२।४) से 'डित' नहीं होता है, अत: सार्वधातुकार्धधातुकयोः' (७।३।८४) से 'उ' प्रत्यय को गुण होता। कृ' धातु को भी पूर्ववत् गुण होता है। अट्कुप्वाङ्' (८।४।२) से णत्व' होता है।
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