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________________ तृतीयाध्यायस्य चतुर्थः पादः ५४३ अनु०-लस्य इत्यनुवर्तते। अन्वय:-धातोर्लेटो लस्याडाटौ। अर्थ:-धातो: परस्य लेट्सम्बन्धिनो लादेशस्य पययिण अट्-आटावागमौ भवतः। उदा०-(अट) जोषिषत् (ऋ० २।३५।१)। तारिषत् (ऋ० १।२५ ।१२)। मन्दिषत्। (आट) पताति दिद्युत् (ऋ० ७।२५ ।१)। उदधिं च्यावयाति (तै०सं० ३।५ ।५।२)। आर्यभाषा-अर्थ-(धातो:) धातु से परे (लेट:) लेट् सम्बन्धी (लस्य) लादेश को पर्याय से (अडाटौ) अट्-आट् आगम होते हैं। उदा०- (अट्) जोषिषत् । वह प्रीति/सेवन करे । तारिषत् । वह तरे । मन्दिषत् । वह स्तुति आदि करे। (आट्) पताति दिद्युत् । विद्युत् गिरे। उदधिं च्यावयाति। वह समुद्र में गिरावे। _ सिद्धि-(१) जोषिषत् । जुष्+लेट्। जुष्+श+तिम्। जुष्+अ+अट्+ति । जुष्+सिप्+अ+अ+त्। जोष्+इट्+स्+अ+त्। जोष्+इ+ष्+अ+त् । जोषिषत् । यहां 'जुषी प्रीतिसेवनयोः' (तु०आ०) धातु से लिङर्थे लेट्' (३।४।७) से 'लेट्' प्रत्यय है और उसके स्थान में लादेश तिम्' प्रत्यय को इस सूत्र से 'अट्' आगम होता है। 'इतश्च लोप: परस्मैपदेषु' (३।४।९७) से 'तिप्' के इकार का लोप होता है। सिब बहुलं लेटि' (३।१।३४) से 'सिप' प्रत्यय होता है और उसे 'आर्धधातुकस्येड्वलादे:' (७।२।३५) से 'इट' आगम और आदेशप्रत्यययोः' (८।३।५९) से षत्व' होता है। तुदादिभ्य: श:' (३।१।७७) से 'श' विकरण प्रत्यय भी होता है। (२) तारिषत् । तृ प्लवनसन्तरणयोः' (भ्वा०प०) । यहां 'वा०-सिब्बहुलं छन्दसि णिद्वक्तव्यः' (३।१।३४) से 'सिप' के णिद्वद् होने से तृ' धातु को 'अचो णिति' (७।२।११५) से वृद्धि होती है। शेष कार्य पूर्ववत् है। (३) मन्दिषत् । 'मदि स्तुतिमोदमदस्वप्नकान्तिवातिषु' (भ्वा०आ०) से यहां इतिदतो नुम् धातो:' (७।१।५८) से धातु को नुम् आगम होता है। शेष कार्य पूर्ववत् है। (४) पताति । यहां पत्नु गतौ' (भ्वा०प०) धातु से 'लेट्' के लादेश 'तिम्' प्रत्यय को इस सूत्र से 'आट' आगम होता है। कर्तरि शप' (३।१।६८) से 'शप्' प्रत्यय भी होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003297
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1997
Total Pages590
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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