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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् अर्थ:-ब्रुञ्धातो: परस्य लटो लस्य पञ्चानामादिभूतानां परस्मैपदसंज्ञकानां तिबादीनां स्थाने विकल्पेन यथासंख्यं पञ्चैव णलादय आदेशा भवन्ति, तत्र ब्रुव: स्थाने चाऽऽह-आदेशो भवति। उदाहरणम्
लादेशा: तिबादय: णलादय: पञ्च भाषार्थ: (१) तिप् स ब्रवीति। स आह। वह बोलता है। (२) तस् तौ ब्रूत:। तौ आहतुः। वे दोनों बोलते हैं। (३) झि ते ब्रुवन्ति। ते आहुः। वे सब बोलते हैं। (४) सिप् त्वं ब्रवीषि। त्वं आत्थ तू बोलता है। (५) थस् युवां ब्रूथः। युवां आहथुः। तुम दोनों बोलते हो। (६) थ: यूयं ब्रूथ। यूयं ब्रूथ। तुम सब बोलते हो। (७) मिप् अहं ब्रवीमि। अहं ब्रवीमि। मैं बोलता हूं। (८) वस् आवां ब्रूवः। आवां ब्रूवः। हम दोनों बोलते हैं। (९) मस् वयं ब्रूमः। वयं ब्रूमः। हम सब बोलते हैं।
आर्यभाषा-अर्थ-(ब्रुव:) ब्रूञ् (धातो:) धातु से परे (लट:) लट् सम्बन्धी (लस्य) लकार के (पञ्चानाम्) पांच (आदित:) आरम्भिक (परस्मैपदानाम्) परस्मैपद संज्ञक तिप्-आदि आदेशों के स्थान में (वा) विकल्प से यथासंख्य (णल०अथुस्) णल्, अतुस्, उस्, थल्. अथुस् ये पांच ही आदेश होते हैं और वहां (ब्रुव:) ब्रूज् धातु के स्थान में (आह:) आह आदेश होता है।
उदा०-उदाहरण और उनका अर्थ संस्कृत भाषा में देख लेवें।
सिद्धि-(१) ब्रवीति । ब+लट् । ब्रू+शप्+तिम् । ब्रू+o+ति। ब्रू+ईट्+ति। ब्रो+ई+ति। ब्रवीति।
यहां 'ब्रून व्यक्तायां वाचिं' (अदा०आ०) धातु से वर्तमाने लट्' (३।२।१२३) से 'लट्' प्रत्यय, 'ल' के स्थान में 'तिपतस्झि०' (३।४।७८) से 'तिप्' आदेश, 'कर्तरि शप' (३।१।६८) से शप्' का लुक् होता है। ब्रुव ईट्' (७ ।३ ।९३) से तिप्' प्रत्यय को 'ईट्' आगम, 'सार्वधातुकार्धधातुकयो:' (७।३।८४) से 'ब्रू' धातु को गुण और 'एचोऽयवायाव:' (६।११६५) से 'अव्' आदेश होता है। ऐसे ही-ब्रवीषि, ब्रवीमि ।
(२) ब्रूत: । यहां ल' के स्थान में तस्' आदेश, सार्वधातुकमपित्' (१।२।४) से तस्' प्रत्यय के डित्' होने से 'सार्वधातुकार्धधातुकयो:' (७।३।८४) से प्राप्त गुण का डिति च' (१।१।५) से प्रतिषेध होता है। ऐसे ही-ब्रुवन्ति, ब्रूथ:, ब्रूथ, ब्रूव:, ब्रूमः।
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