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________________ तृतीयाध्यायस्य चतुर्थः पादः ५३३ (५) वित्यः | यहां 'लू' के स्थान में 'थस्' आदेश और पूर्ववत् प्राप्त लघूपध गुण का प्रतिषेध होता है। (६) वित्थ। यहां ल्' के स्थान में 'थ' आदेश और पूर्ववत् प्राप्त लघूपधगुण का प्रतिषेध होता है। (७) वेद्मि । यहां 'लू' के स्थान में 'मिप्' आदेश और पूर्ववत् प्राप्त लघूपध गुण होता है। (८) विद्व: । यहां 'ल्' के स्थान में 'वस्' आदेश और पूर्ववत् लघूपध गुण का प्रतिषेध होता है। (९) विद्म: । यहां 'लू' के स्थान में 'मस्' आदेश और पूर्ववत् लघूपध गुण का प्रतिषेध होता है। (१०) वेद। यहां 'तिप्' के स्थान में 'णल्' आदेश और पूर्ववत् लघूपध गुण होता है। (११) विदतुः | यहां 'तस्' के स्थान में 'अतुस्' आदेश है। (१२) विदुः | यहां 'झि' के स्थान में 'उस्' आदेश है । (१३) वेत्थ | यहां 'सिप्' के स्थान में 'थल्' आदेश है। (१४) विदथुः | यहां 'थस्' के स्थान में 'अथुस्' आदेश है। (१५) विद । यहां 'थ' के स्थान में 'अ' आदेश है। (१६) वेद। यहां 'मिप्' के स्थान में 'णल्' आदेश है। (१७) विद्व | यहां 'वस्' के स्थान में 'व' आदेश है (१८) विद्म । यहां 'मस्' के स्थान में 'म' आदेश है। लघूपधं गुण तथा उसके प्रतिषेध का कार्य पूर्ववत् है । विशेष- पाणिनीय धातुपाठ में 'विद ज्ञाने' (अदा०प०), 'विद सत्तायाम्' (दि०आ०), 'विद विचारणे' (रुधा० आ०), विद चेतनाख्याननिवासेषु' (चु०आ०) विद्लृ लाभे (रुधा०आ०) पठित हैं । 'विद् ज्ञाने' (अ०प०) धातु परस्मैपद है। शेष धातु आत्मनेपद हैं। अतः परस्मैपद विषय होने से परस्मैपद विद् ज्ञाने' धातु का ही यहां ग्रहण किया जाता है; आत्मनेपद का नहीं । पञ्च णलादय आहादेशश्च (२) ब्रुवः पञ्चानामादित आहो ब्रुवः । ८४ । प०वि० - ब्रुवः ५ ।१ पञ्चानाम् ६ । ३ आदितः अव्ययपदम् आह: १ ।१ ब्रुवः ६ । १ । अनु०- लस्य, परस्मैपदानाम्, णल्०मा, लटः, वा इति चानुवर्तते । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003297
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1997
Total Pages590
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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