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________________ ५२८ पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् (१३) पचसे । 'ल' के स्थान में 'थास्' आदेश और ‘थास: से' (३।४।८०) से 'थास्' के स्थान में से' आदेश है। (१४) पचेथे। 'ल' के स्थान में 'आथाम्' आदेश और शेष कार्य पचेते' के समान है। (१५) पचध्वे । 'ल' के स्थान में 'ध्वम्' आदेश और पूर्ववत् 'टि' भाग को 'ए' आदेश होता है। (१६) पचे। 'ल' के स्थान में 'इट' आदेश है। (१७) पचावहे। ल' के स्थान में वहि' आदेश है। पूर्ववत् 'टि' भाग को 'ए' आदेश होता है। अतो दी? यजि' (७।३।१०१) से दीर्घत्व होता है। (१८) पचामहे । 'ल' के स्थान में महिङ्’ आदेश है। पूर्ववत् दीर्घत्व होता है। 'महिङ्' में ‘ङ्' अनुबन्ध तिङ्' प्रत्याहार की रचना के लिये है। एकारादेशः (३) टित आत्मनेपदानां टेरे।७६ । प०वि०-टित: ६१ आत्मनेपदानाम् ६।३ टे: ६।१ ए ११ (लुप्तप्रथमानिर्देश:)। अनु०-लस्य इत्यनुवर्तते। अन्वय:-धातोष्टितो लस्यात्मनेपदानां टेरेः । अर्थ:-धातो: परस्य टितो लकारस्यात्मनेपदसंज्ञकानां लादेशानां टि-भागस्य स्थाने एकारादेशो भवति । उदा०-स पचते। तौ पचेते। ते पचन्ते। इत्यादिकम् । आर्यभाषा-अर्थ-(धातो:) धातु से परे (टित:) टित् लकार के (आत्मनेपदानाम्) आत्मनेपदसंज्ञक (लस्य) लकारादेशों के (टे:) टि-भाग के स्थान में (ए) एकार आदेश होता है। उदा०-स पचते । वह पकाता है। तौ पचेते। वे दोनों पकाते हैं। ते पचन्ते । वे सब पकाते हैं, इत्यादि। सिद्धि-पचते। पच्+लट् । पच्+शप्+त। पच+अ+त् ए। पचते। ___ यहां 'ड्रपचष पाके' (भ्वा०उ०) धातु से 'तिपतसझि०' (३।४।७८) से ल' के स्थान में त' आदेश और इस सूत्र से त' प्रत्यय के टि' भाग 'अ' के स्थान में 'एकारादेश' होता है। शेष रूप तथा उनकी सिद्धि 'तिपतझि०' (३।४।७८) की व्याख्या में लिख दी है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003297
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1997
Total Pages590
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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