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तृतीयाध्यायस्य चतुर्थः पादः
५२७ आर्यभाषा-अर्थ-(धातो:) धातु से परे (लस्य) लकार के स्थान में (तिप्०महिङ्) तिप् आदि १८ आदेश होते हैं।
उदा०-उदाहरण और उनका अर्थ संस्कृत भाग में देख लेवें। सिद्धि-(१) पचति । पच्+लट् । पच्+शप्+तिम्। पच्+अ+ति। पचति ।
यहां 'डुपचष् पाके' (भ्वा० उ०) धातु से वर्तमाने लट्' (३।२।१२३) से लट्' प्रत्यय और इस सूत्र से 'ल' के स्थान में तिप्' आदेश है। कर्तरि शप' (३।१।६८) से शप विकरण प्रत्यय होता है।
(२) पचतः । यहां इस सूत्र से 'ल' के स्थान में तस्' आदेश है। 'ससजुषो रुः' (८।२।६६) से तस्' के 'स्' को 'ह' और 'खरवसानयोर्विसर्जनीयः' (८।३।१५) से 'ह' के रेफ को विसर्जनीय आदेश होता है।
(३) पचन्ति। यहां इस धातु से 'ल' के स्थान में झ' आदेश है। झोऽन्तः' (७।१।३) से झ्' के स्थान में 'अन्त्' आदेश होता है।
(४) पचसि । यहां इस सूत्र से 'ल' के स्थान में सिप्' आदेश है।
(५) पचथः । 'ल' के स्थान में 'थस्' आदेश है। पूर्ववत् रुत्व और विसर्जनीय आदेश होता है।
(६) पचथ । 'ल' के स्थान में 'थ' आदेश है।
(७) पचामि। ल' के स्थान में मिप्’ आदेश है। 'अतो दी? यत्रि (७।३।१०१) से दीर्घत्व होता है।
(८) पचाव: । 'ल' के स्थान में वस्' आदेश है। पूर्ववत् रुत्व और विसर्जनीय आदेश होता है।
(९) पचामः । 'ल' के स्थान में 'मस्' आदेश है। पूर्ववत् रुत्व और विसर्जनीय आदेश होता है।
(१०) पचते। यहां पूर्वोक्त 'पच्' धातु से आत्मनेपद की विवक्षा में 'ल' के स्थान में त' आदेश है। 'टित आत्मनेपदानां टेरे' (३।४।७९) से त' प्रत्यय के टि' भाग को 'ए' आदेश होता है।
(११) पचेते। 'ल' के स्थान में 'आताम्' आदेश है। आतो डितः' (७।२।८१) से 'आताम्' के 'आ' के स्थान में 'इय्' आदेश होता है। पूर्ववत् 'टि' भाग को 'ए' आदेश होता है। लोपो व्योर्वलि' (६।१।६४) से 'इय्' के 'य' का लोप और 'आद्गुण:' (६।१।८४) से गुण रूप एकादेश (अ+इ+ए) होता है।
(१२) पचन्ते। 'ल' के स्थान में 'झ' आदेश, पूर्ववत् 'झ' के स्थान में 'अन्त' आदेश और टि' भाग को 'ए' आदेश होता है।
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