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________________ पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् ५२० पश्चात् उत्पन्न हुआ गया। (रुह) आपने वृक्ष पर आरोहण किया। आपके द्वारा वृक्ष पर आरोहण किया गया। आपके द्वारा आरोहण किया गया। ( जीर्यति) देवदत्त वृषली के पश्चात् जीर्ण (वृद्ध) हुआ। देवदत्त के द्वारा वृषली के पश्चात् जीर्ण हुआ गया । देवदत्त से जीर्ण हुआ गया । ये श्लिष आदि धातु अकर्मक हैं किन्तु स-उपसर्ग होने पर ये सकर्मक हो जाती हैं । अतः इनका यहां ग्रहण किया गया है। सिद्धि - (१) गतो देवदत्तो ग्रामम् । यहां गत्यर्थक 'गम्' धातु से 'निष्ठा' ( ३ / २ /१०२ ) से विहित 'क्त' प्रत्यय इस सूत्र से कर्ता अर्थ में है । अत: कर्म के अकथित होने से 'कर्मणि द्वितीया' (२ 1३1२ ) से 'ग्राम' कर्म में द्वितीया विभक्ति होती है। 'अनुदात्तोपदेश०' (६ ।४ /३७ ) से 'गम्' के अनुनासिक 'न्' का लोप होता है । (२) गतो देवदत्तेन ग्रामः । यहां पूर्वोक्त 'गम्' धातु से पूर्ववत् क्त प्रत्यय इस सूत्र से कर्म अर्थ में है । अत: कर्ता के अकथित होने से 'कर्तृकरणयोस्तृतीया' (२।३।१८) से अकथित कर्ता देवदत्त में तृतीया विभक्ति है। (३) गतं देवदत्तेन । यहां पूर्वोक्त 'गम्' धातु से पूर्ववत् विहित 'क्त' प्रत्यय इस सूत्र से कर्म की अविवक्षा होने से भाव अर्थ में है। शेष कार्य पूर्ववत् है । इसी विधि से शेष उदाहरणों में भी कर्ता, कर्म और भाव अर्थ की योजना समझ लेवें । (४) ग्लान: । 'ग्लै हर्षक्षये' ( वा०प०) धातु से इस सूत्र से कर्ता और भाव अर्थ में 'क्त' प्रत्यय तथा 'संयोगादेरातो धातोर्यण्वत:' ( ८ / २ / ३४ ) से 'क्त' के 'त' को 'न' आदेश होता है । " (५) उपश्लिष्ट: । यहां 'उप' उपसर्गपूर्वक 'श्लिष आलिङ्गनें' ( ३ | १/४६) धातु से इस सूत्र से कर्ता, कर्म और भाव अर्थ में 'क्त' प्रत्यय तथा 'ष्टुना ष्टुः' (८/४ /४०) से 'क्त' प्रत्यय के 'त' को 'ट' आदेश होता है। (६) उपशयित:। यहां 'उप' उपसर्गपूर्वक 'शीङ् स्वप्ने' (अदा०आ०) धातु से इस सूत्र से कर्ता, कर्म और भाव अर्थ में 'क्त' प्रत्यय और 'आर्धधातुकस्येड्वलादेः' (७/२/३५ ) से 'इट्' आगम होता है। (७) उपस्थित: । यहां 'उप' उपसर्गपूर्वक 'ष्ठा गतिनिवृत्तौ (भ्वा०प०) धातु से इस सूत्र से कर्ता, कर्म और भाव अर्थ में 'क्त' प्रत्यय है । द्यतिस्यतिमास्थामित्ति किति' (७/४/४०) से इत्त्व होता है। 1 (८) उपासितः | यहां 'उप' उपसर्गपूर्वक 'आस उपवेशने' (अदा०आ०) धातु से पूर्ववत् 'क्त' प्रत्यय और 'आर्धधातुकस्येड्वलादे:' (७ / २ /३५ ) से 'इट्' आगम होता है (९) अनूषित: । यहां 'अनु' उपसर्गपूर्वक 'वस निवासे' (भ्वा०प०) धातु से पूर्ववत् 'क्त' प्रत्यय, 'वचिस्वपियजादीनां किति' (६ | १|१५ ) से सम्प्रसारण 'वसतिक्षुधोरिट्' (७/२/५२) से 'इट्' आगम और 'शासिवसिघसीनां च' (८ | ३ |६०) से षत्व होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003297
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1997
Total Pages590
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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