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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् 'मन्त्रे घसहरणश०' (२।४।८०) से चिल' का लुक, झोऽन्तः' (७।१।३) से 'झ' को अन्त-आदेश, इतश्च' (३।४।१००) 'अन्ति' के इकार का लोप, संयोगान्तस्य लोप:' (८।२।२३) से संयोगान्त तकार का लोप और 'इको यणचि (६।१।७४) से 'कृ' को यण (र) आदेश होता है।
(७) अभ्युदसीषदत् । अभि+उत्+सादि+लुङ। अभ्युत्+अट+सादि+च्लि+ल। अभ्युत्+अ+सादि+च+तिम्। अभ्युत्+अ+सादि+अ+त्। अभ्युत्+अ+सद्+सद्+अ+त्। अभ्युत्+अ+सि+सद्+अ+त्। अभ्युत्+अ+सी+षद्+अ+त् । अभ्युदसीषदत्।
यहां पद्ल विशरणगत्यवसादनेषु' (भ्वा०प०) से पूर्ववत् णिच्' प्रत्यय, णिजन्त 'सादि' धातु से भूतकाल में लुङ् (३।२।११०) से लुङ् प्रत्यय, च्लि लुङि' (३।१।४०) से चिल' प्रत्यय, णिश्रिद्रुस्रुभ्य: कर्तरि चङ् (३।१।४८) से चिल' के स्थान में 'चङ्' आदेश, ‘णौ चङ्युपधाया हस्व:' (७।४।१) से 'सादि' धातु का उपधा-ह्रस्व (सदि), 'जेरनिटि' (६।४।५१) से णिच्' का लोप, 'इतश्च' (३।४।१००) से 'तिप्' के इकार का लोप, 'चङि' (६।१।११) से धातु को द्वित्व, सन्वल्लघुनि०' (७।४।९३) से सन्वद्भाव, 'सन्यत:' (७।४।७९) से अभ्यास के अकार को इत्व, दीर्घो लघो:' (७।४।९४) से इ को दीर्घ और 'आदेशप्रत्यययोः' (८।३।५९) से षत्व होता है।
___(८) प्राजीजनत् । प्र उपसर्गपूर्वक जनी प्रादुर्भावे' (दि०आ०) धातु से पूर्ववत् सिद्ध करें।
(९) अरीरमत् । 'रमु क्रीडायाम् (भ्वा०आ०) धातु से पूर्ववत् सिद्ध करें।
(१०) अचैषीत् । चिञ् चयने (स्वा०3०) धातु से लुङ्, 'अस्तिसिचोऽपृक्ते (७।३।९६) से ईट् आगम, सिचि वृद्धि: परस्मैपदेषु' (७।२।१) से वृद्धि और 'आदेशप्रत्यययो:' (८।३।५९) से षत्व होता है।
लुङ्-लकारः चिल:
(१) च्लि लुङि।४३। प०वि०-च्लि १।१ (लुप्तप्रथमा) लुङि ७१। अनु०-धातोरित्यनुवर्तते। अन्वय:-धातोश्च्लि: प्रत्ययो लुङि। अर्थ:-धातो: पर: चिल: प्रत्ययो भवति, लुङि प्रत्यये परत:। उदा०-च्लि-स्थाने सिजादीनादेशान् वक्ष्यति, अतोऽग्रे उदाहरिष्यते।
आर्यभाषा-अर्थ-(धातो:) धातु से परे (च्लि) चिल प्रत्यय होता है (लुङि) लुङ् प्रत्यय परे होने पर।
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