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________________ तृतीयाध्यायस्य प्रथमः पादः से यहां अभि, उत् उपसर्गपूर्वक 'षदल विशरणगत्यवसादनेषु' (भ्वा०प०) धातु हेतुमति च' (३।१।२६ ) से णिच्' प्रत्यय, 'अत उपधायाः' (७।२ । ११६ ) से धातु को उपधावृद्धि है। णिजन्त 'अभ्युत्सादि' धातु से निपातन से 'लुङ्' परे होने पर 'आम्' प्रत्यय, 'आम्’ प्रत्यय के पश्चात् 'लुङ्' परे होने पर निपातन से 'कृ' धातु का अनुप्रयोग, 'च्लि लुङि' (३।१।४३) से चिल' का लुक, 'इतश्च' ( ३ | ४ | १०० ) से 'तिप्' के इकार का लोप, 'सार्वधातुकार्धधातुकयोः' (७/३/८४) से 'कृ' को गुण (कर्) और 'खरवसानयोर्विसर्जनीयः' (८ | ३ |१५) से रेफ को विसर्जनीय होता है। यहां लिट् लकार विषयक कार्य लुङ् लकार में निपातन से होता है। ३६ (२) प्रजनयामक:। यहां प्र उपसर्गपूर्वक जनी प्रादुर्भावि (दि०आ०) धातु से पूर्ववत् 'णिच्' प्रत्यय और उपधावृद्धि होती है किन्तु उसे 'मितां हस्व:' ( ६ । ४ ।९२) से ह्रस्व जाता है। शेष कार्य पूर्ववत् है । (३) चिकयामक: । यहां 'चिञ् चयनें' (स्वा०3०) धातु से पूर्ववत् णिच्' प्रत्यय है। यहां च को ककार आदेश निपातन से होता है । शेष कार्य पूर्ववत् है । (४) रमयामक:। यहां 'रमु क्रीडायाम्' (भ्वा०आ०) धातु से पूर्ववत् णिच्' प्रत्यय और रम् धातु को उपधावृद्धि होती है। किन्तु उसे 'मितां हस्व:' ( ६ । ४ ।९२) से ह्रस्व हो जाता है। शेष कार्य पूर्ववत् है । (५) पावयांक्रियात् । पू+ णिच् । पौ+ इ । पावि । पावि+लिङ् । पावि+आम्+लि । पावे+आम्+०। पावयाम् । पावयाम् +कृ+लिङ् । पावयाम् +कृ+यासुट्+तिप् । पावयाम्+कृ+यास्+त्। पावयाम्+क्रिङ् या०+त् । पावयांक्रियात् । यहां 'पूङ् पवनें' (भ्वा०आ० ) पूञ पवनें' (क्रया० उ० ) धातु से पूर्ववत् णिच्' प्रत्यय 'अचो ञ्णितिं' (७।२1११५) से धातु को वृद्धि होती है। णिजन्त 'पावि' धातु से 'आशिषि लिङ्लो' ( ३।३।१७३) से आशीर्वाद अर्थ में 'लिङ्' प्रत्यय । लिङ् परे होने पर निपातन से 'आम्' प्रत्यय, 'आम:' (२।४।८१) से 'लिङ्' का लुक् । 'इतश्च'' (३ | ४ ।१००) से तिप्' के इकार का लोप, 'यासुट् परस्मैपदेषूदात्तो ङिच्च' (३ । ४ । १०३) से 'यासुट्' आगम, ‘रिङ् शयग्लिङ्क्षु' (७।४।२८) से धातु को 'रिङ्' आदेश, 'स्को: संयोगाद्योरन्ते च' (८ । ३ ।२९ ) से 'यास्' के सकार का लोप होता है। (६) विदामक्रन् । विद्+लुङ् । विद्+आम्+लु । विद्+आम्+०। विदाम्। विदाम्+कृ+लुङ् । विदाम्+अट् +कृ+चिल+झि । विदाम् +अ+कृ+०+अन्ति । विदाम्+अ+कृ+अन्त् । विदामक्रन्त्। विदामक्रन्। यहां 'विद् ज्ञाने' (अ०प०) धातु से 'लुङ्' परे होने पर निपातन से 'आम्' प्रत्यय, 'पुगन्तलघूपधस्य चं' (७/३/८६) से प्राप्त लघूपध गुण का अभाव है। 'आम्' प्रत्यय के पश्चात् निपातन से 'लुङ्' में कृञ् का प्रयोग, 'च्लि लुङि' (३।१।४३) से 'च्लि' प्रत्यय, For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.003297
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1997
Total Pages590
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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