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________________ तृतीयाध्यायस्य चतुर्थः पादः ५०१ विश-आदि क्रियाओं के ..ाथ सम्पूर्णता से पदार्थों का सम्बन्ध होना व्याप्ति कहाती है। तत्परता एवं क्रिया का बार-बार होना आसेवा कहाती है। द्रव्य में व्याप्ति और क्रिया में आसेवा रहा करती है। समास के द्वारा व्याप्ति और आसेवा का कथन होने से नित्यवीप्सयोः' (८1१।४) से द्वित्व नहीं होता है, इसमें उक्तार्थानामप्रयोगः' यह महाभाष्य वचन प्रमाण है। ___ असमास पक्ष में व्याप्यमानता अर्थ में द्रव्यवाची शब्द को द्वित्व होता है और आसेव्यमानता अर्थ में क्रियावाची शब्द को द्वित्व होता है। जैसा कि कहा गया है-सुबन्तों में वीप्सा (व्यापकता) और तिङन्तों में नित्यता (आसेव्यता) रहती है। उदा०-संस्कृत भाग में देख लेवें। अर्थ इस प्रकार हैधातु व्याप्यमानता आसेव्यमानता (१) विशि घर-घर में प्रवेश करता है। घर में बार-बार प्रवेश करता है। (२) पति घर-घर में जाता है। घर में बार-बार जाता है। (३) पदि घर-घर में जाता है। घर में बार-बार जाता है। (४) स्कन्द घर-घर में कूदता है। घर में बार-बार कूदता है। ___ सिद्धि-(१) गेहानुप्रवेशम्। यहां द्वितीयान्त गेह शब्द उपपद होने पर अनु-प्र उपसर्गपूर्वक 'विश प्रवेशने' (तु०प०) धातु से इस सूत्र से णमुल् प्रत्यय है। 'पुगन्ततघूपधस्य च' (७।३।८६) से 'विश्' धातु को लघूपध गुण होता है। तृतीयाप्रभृतीन्यन्यतरस्याम्' (२।२।२१) से विकल्प से उपपद समास होता है। समास पक्ष में व्याप्यमानता और आसेव्यमानता का समास के द्वारा ही कथन होने से द्वित्व नहीं होता है। असमास पक्ष में व्याप्ति अर्थ में द्रव्यवाची गेह शब्द को और आसेवा (नित्यता) अर्थ में क्रियावाची शब्द को नित्यवीप्सयोः' (८।१।४) से द्वित्व होता है। जैसा कि उदाहरणों में दर्शाया गया है। (२) गेहानुप्रपातम् । अनु-प्र उपसर्गपूर्वक 'पत्लु गतौ' (भ्वा०प०) । (३) गेहानुप्रपादम् । अनु-प्र उपसर्गपूर्वक पद गतौ' (दि०आ०) । (४) गेहावस्कन्दम् । अव-उपसर्गपूर्वक स्कन्दिर् गतिशोषणयो:' (भ्वा०प०)। णमुल् (३१) अस्यतितृषोः क्रियान्तरे कालेषु ।५७। प०वि०-अस्यति-तृषोः ६।२ (पञ्चम्यर्थे) क्रियान्तरे ७।१ कालेषु ७।३। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003297
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1997
Total Pages590
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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