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________________ ४६५ तृतीयाध्यायस्य चतुर्थः पादः अनु०-छन्दसि इत्यनुवर्तते। अन्वयः-छन्दसि कृत्यार्थे धातोस्तवैकेन्केन्यत्वनः । अर्थ:-छन्दसि विषये कृत्यप्रत्ययानामर्थे धातो: परे तदै-केनकेन्य-त्वन: प्रत्यया भवति। उदा०-(तवै:) अन्वेतवै (ऋ० ७।४४ १५) अन्वेतव्यम् । परिधातवै (अथर्व० २।१३ ॥३)। परिधातव्यम् । परिस्तरितवै (का०सं० ३२।७) । परिस्तरितव्यम्। (केन्) नावगाहे-नावगाहितव्यम्। दिदृक्षेण्यः (ऋ० १।१४६।५)। दिदृक्षितव्यम्। शुश्रूषेण्यः (तै०आ० ४।१।१)। शुश्रूषितव्यम्। (त्वन्) कर्वं हवि: (अथर्व० १।४।३)। कर्तव्यम् । __आर्यभाषा-अर्थ-(छन्दसि) वेदविषय में (कृत्यार्थे) कृत्यसंज्ञक प्रत्ययों के भाव, कर्म तथा अर्ह अर्थ में (तवैत्वन:) तवै, केन्. केन्य, त्वन्, प्रत्यय होते हैं। उदा०-(तवै) अन्वेतवै। अन्वय करना चाहिये। परिधातवै। परिधान के योग्य। परिस्तरितवै। आच्छादन के योग्य। (केन्) नावगाहे। स्नान करने के योग्य नहीं। (केन्य) दिदक्षेण्यः । दिदृक्षा के योग्य । दिदृक्षा-देखने की इच्छा। शुश्रूषेण्यः । शुश्रूषा के योग्य। शुश्रूषा-गुरु सेवा। (त्वन्) कर्वं हविः । करने योग्य हवि। सिद्धि-(१) अन्वेतवै। अनु+इ+तवै। अनु+ए+तवै। अन्वेतवै+सु । अन्वेतवै । यहां 'अनु' उपसर्गपूर्वक 'इण् गतौ (अदा०प०) धातु से तवै' प्रत्यय है। सार्वधातुकार्धधातुकयोः' (७ १३ १८४) से 'इण्' धातु को गुण होता है। (२) परिधातवै । यहां 'परि' उपसर्गपूर्वक डुधाञ् धारणपोषणयोः' (जु०७०) धातु से तवै' प्रत्यय है। (३) परिस्तरितवै। 'परि' उपसर्गपूर्वक 'स्तृञ् आच्छादने (क्रयाउ०) धातु से तवै' प्रत्यय है। पूर्ववत् इट्' आगम और गुण होता है। (४) अवगाहे । 'अव' उपसर्गपूर्वक 'गाहू विलोडने' (भ्वा०आ०) धातु से केन्' प्रत्यय है। (५) दिदृक्षेण्यः । 'दिदृक्ष' (सन्नन्त) धातु से केन्य' प्रत्यय है। (६) शुश्रूषेण्य: । 'शुश्रूष' (सन्नन्त) धातु से केन्य' प्रत्यय है। (७) कर्वम् । कृ' धातु से त्वन्' प्रत्यय है। सार्वधातुकार्धधातुयोः (७।३।८४) से कृ' धातु को गुण होता है। कृत्यार्थ- 'तयोरेव कृत्यक्तखला:' (३ १४ १७०) से कृत्यसंज्ञक प्रत्यय भाव और कर्म अर्थ में तथा 'अहे कृत्यतृवश्च (३।३।१६९) से अहं अर्थ में होते है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003297
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1997
Total Pages590
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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