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________________ ४६२ पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् यहां रुह बीजजन्मनि प्रादुर्भावे च' (भ्वा०प०) धातु से 'इष्यै' प्रत्यय निपातित है। 'पुगन्तलघूपधस्य च' (७ १३ १८६) से रह्' धातु को लघूपध गुण होता है। (३) अव्यथिष्यै। यहां नञ्पूर्वक व्यथ भयसंचलनयो:' (भ्वा०आ०) धातु से 'इष्य' प्रत्यय निपातित है। विशेष-यहां सर्वत्र कृन्मेजन्त:' (१।१।३८) से अव्ययसंज्ञा और 'अव्ययदा सुप:' (२।४।८२) से सुप् का लुक् होता है। तुमर्थे (निपातनम्) (६) दृशे विख्ये च।११। प०वि०-दृशे अव्ययपदम्, विख्ये अव्ययपदम्, च अव्ययपदम्। अनु०-छन्दसि, तुमर्थे इति चानुवर्तते। अन्वय:-छन्दसि तुमर्थे दृशे विख्ये च । अर्थ:-छन्दसि विषये तुमर्थे दृशे विख्ये च शब्दौ निपात्येते। उदा०-(दृशे) 'दृशे विश्वाय सूर्यम्' (यजु० ७।४१)। (विख्ये) विख्ये त्वा हरामि। आर्यभाषा-अर्थ-(छन्दसि) वेदविषय में (तुमर्थे) तुमुन् प्रत्यय के भाव अर्थ में (दृशे विख्ये) दृशे और विख्ये शब्द (च) भी निपातित हैं। उदा०-(दृशे) दृशे विश्वाय सूर्यम्' (यजु० ७ १४१) किरणें सब पदार्थों को देखने के लिये सूर्य को प्राप्त कराती हैं। (विख्ये) विख्ये त्वा हरामि । विख्याति के लिये तुझे हरण करता हूं। सिद्धि-(१) दृशे । दृश्+के। दृश्+ए। दृशे+सु । दृशे। यहां दृशिर प्रेक्षणे' (भ्वा०प०) धातु से के' प्रत्यय निपातित है। प्रत्यय के 'कित्' होने से क्डिति च' (१।१।५) से 'पुगन्तलघूपधस्य च' (७।३।८६) से प्राप्त लघूपध गुण का प्रतिषेध होता है। (२) विख्ये। वि+ख्या+के। वि+ख्य+ए। विख्ये+सु। विख्ये। यहां वि' उपसर्गपूर्वक 'ख्या प्रकथने (अदा०प०) धातु से 'के' प्रत्यय निपातित है। प्रत्यय के कित्' होने से 'आतो लोप इटि च' (६।४।६४) से 'ख्या' के 'आ' का लोप होता है। विशेष-यहां उभयत्र कृन्मेजन्त:' (१।१।३८) से अव्ययसंज्ञा और पूर्ववत् सुप्' का लुक् होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003297
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1997
Total Pages590
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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