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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम्
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( तै०सं० ६ । ४ । ७।२) । ( आशङ्का ) नेज्जिह्मायन्त्यो नरकं पताम (ऋ०१० | १०६ । १) | जिह्माचरणेन नरके पात आशङ्क्यते ।
आर्यभाषा - अर्थ - (छन्दसि ) वेदविषय में (धातोः) धातु से (लेट्) लेट् प्रत्यय होत है (उपवादाशङ्कयोः) यदि वहां उपसंवाद = शर्त और आशङ्का = उत्प्रेक्षा अर्थ (एक कार्य से दूसरे कार्य का अनुमान) की प्रतीति हो ।
उदा०- - संस्कृत भाग में देख लेवें ।
सिद्धि - (१) ईशै। ईश्+लेट्। ईश्+अट्+ल्। ईश्+अ+इट् । ईश्+अ+ए । ईश्+अ+ऐ। ईशे ।
यहां 'ईश ऐश्वर्ये' (अदा०आ०) धातु से इस सूत्र से उपसंवाद अर्थ में लेट् प्रत्यय है । 'लेटोऽडाट' (३/४/४) से 'लेट्' को 'अट्' आगम, उत्तम पुरुष एक वचन में 'इट्' प्रत्यय, 'टित आत्मनेपदानां टेरें (३।४।७९) से एत्व और 'एत ऐ' (३/४/९३) से 'ऐ' आदेश होता है।
(२) गृह्यान्तै । ग्रह+लेट् । ग्रह+आट्+ल् । ग्रह+यक्+आ+झ । गृह+य+आ+अन्ते । गृह+य+आ+अन्तै । गृह्यान्तै ।
यहां 'ग्रह उपादाने' (क्र्या०प०) धातु से उपसंवाद अर्थ में 'लेट्' प्रत्यय 'लेटोडाट (३/४/९४) से 'लेट्' को 'आट्' आगंम, प्रथम बहुवचन में 'झोऽन्तः' (७ । १ । ३) से 'झ' के स्थान में अन्त - आदेश, कर्मवाच्य में 'सार्वधातुके यक्' (३/१/६७) से 'यक्' विकरण- प्रत्यय, 'प्रहिज्या० ' ( ६ |१ |१६ ) से सम्प्रसारण होता है। एत्व और ऐ' आदेश पूर्ववत् हैं।
(३) उच्यान्तै । यहां 'वच परिभाषणे' (अदा०प०) धातु से 'वचिस्वपि०' (६ 1१1१५) से 'वच्' धातु को सम्प्रसारण होता है। शेष कार्य 'गृह्यान्तै' के समान है।
(४) पता । यहां पत्लृ गतौं' (भ्वा०प०) धातु से इस सूत्र से आशंका अर्थ में 'लेट्' प्रत्यय, उत्तम पुरुष बहुवचन में 'मस्' प्रत्यय और 'लेटोऽडाट' (३/४/९४) से 'आट्' आगम होता है ।
से-आदयः (तुमर्थे) -
(४) तुमर्थे सेसेनसेअसेन्क्सेक्सेनध्यै अध्यैन्कध्यैकध्यैन्शध्यैशध्यैन्तवैतवेङ्तवेनः । ६ ।
प०वि०-तुमर्थे ७।१ से-सेन्-असे-असेन्ं-क्से-क्सेन्-अध्यै-अध्यैन्कध्यै-कध्यैन् -शध्यै-शध्यैन् - तवै - तवेङ्- तवेनः १ । ३ ।
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