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________________ ३४ पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् (२) पलायाञ्चक्रे । परा+अय+आम्। पलायाम्। 'अय गतौ' (भ्वा०आ०) धातु से इस सूत्र से लिट्लकार में आम् प्रत्यय है। उपसर्गस्यायतौ' (८।२।१९) से परा उपसर्ग के रेफ को लत्व होता है। (३) आसाञ्चक्रे । 'आस् उपवेशने (अदा०आ०) धातु से इस सूत्र से लिट्लकार में आम् प्रत्यय है। (४) इन पदों की सिद्धि कासाञ्चक्रे' (१।३।३५) के समान है। आम् (४) उषविदजागृभ्योऽन्यतरस्याम् ।३८ । प०वि०-उष-विद-जागृभ्य: ५।३ अन्यतरस्याम्, अव्ययपदम् । स०-उषश्च विदश्च जागृश्च ते उपविदजाग्र:, तेभ्य:-उषविदगृभ्यः (इतरेतरयोगद्वन्द्वः)। अनु०-धातो:, अमन्त्रे, आम्, लिटि इति चानुवर्तते। अन्वय:-अमन्त्रे उषविदजागृभ्यो धातुभ्योऽन्यतरस्याम् आम् लिटि । अर्थ:-अमन्त्रे विषये उषविदजागृभ्यो धातुभ्य: परो विकल्पेन आम् प्रत्ययो भवति, लिटि प्रत्यये परत:। उदा०-(उष) ओषाञ्चकार, उवोष वा। (विद) विदाञ्चकार, विवेद वा। (जागृ) जागराञ्चकार, जजागार वा। आर्यभाषा-अर्थ-(अमन्त्रे) मन्त्र विषय को छोड़कर (उषविदजागृभ्यः) उष, विद, जागृ (धातो:) धातुओं से (अन्यतरस्याम्) विकल्प से (आम्) आम् प्रत्यय होता है (लिटि) लिट् प्रत्यय परे होने पर। उदा०-(उष) ओषाञ्चकार, उवोष वा। उसने जलाया। (विद) विदाञ्चकार, विवेद वा । उसने जाना। सिद्धि-(१) ओषाञ्चकार। उष्+लिट् । उष्+आम्+लि। ओष्+आम्+० । ओषाम्+सु। ओषाम्+० । ओषाम्+कृ+लिट् । ओषाम्+कृ+तिम्। ओषाम्+कृ+कृ+णल्। ओषाम्+क+का+अ। ओषाम्+च+का+अ। ओषाञ्चकार । यहां उष दाहे' (भ्वा०प०) धातु से 'लिट् लकार में इस सूत्र से आम् प्रत्यय होता है। 'पुगन्तलघूपधस्य च' (७।३।८६) से उष् की उपधा को गुण होता है। उष् धातु के परस्मैपद होने से 'आम्प्रत्ययवत् कुञोऽनुप्रयोगस्य' (१।३।६३) से अनुप्रयुक्त कृ' धातु से भी परस्मैपद होता है। णल् प्रत्यय के णित् होने से 'कृ' धातु को 'अचो णिति (७।२।११५ ) से वृद्धि होती है। शेष कार्य 'कासाञ्चक्रे' (१।३३५) के समान है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003297
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1997
Total Pages590
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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