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________________ तृतीयाध्यायस्य प्रथमः पादः ३५ (२) विदाञ्चकार । विद ज्ञाने (अदा०प०)। 'आम्' प्रत्यय के परे विद' धातु अदन्त प्रतिज्ञात है। अत: 'विद' धातु को 'पुगन्तलघूपधस्य च' (७।३।८६) से प्राप्त उपधा को गुण नहीं होता है। (३) जागराञ्चकार। जागृ निद्राक्षये (अदा०प०) पूर्ववत् । (४) उवोष' आदि पदों की सिद्धि चकार' के समान करें। आम् (५) भीहीभृहुवां श्लुवच्च ।३६ । प०वि०-भी-ह्री-भृ-हुवाम् ६।३ श्लुवत् अव्ययपदम्, च अव्ययपदम्। स०-भीश्च ह्रीश्च भृश्च हुश्च ते-भीह्रीभृहुव:, तेषाम्-भीहीभृहुवाम् (इतरेतरयोगद्वन्द्व:)। श्लोरिव श्लुवत् (तद्धितवृत्ति:)। अनु०-धातो:, अमन्त्रे, आम्, लिटि अन्यतरस्याम् इति चानुवर्तते । अन्वय:-अमन्त्रे भीह्रीभृहुभ्यो धातुभ्योऽन्यतरस्याम् आम्, तेषां च श्लुवल्लिटि। ___ अर्थ:-अमन्त्रे विषये भीह्रीभृहुभ्यो धातुभ्य: परो विकल्पेन आम् प्रत्ययो भवति, तेषां च श्लुवत् कार्यं भवति, लिटि प्रत्यये परत: । उदा०-(भी) बिभाञ्चकार, बिभाय वा। (ही) जिह्वयाञ्चकार, जिह्वाय वा। (भृ) बिभराञ्चकार, बभार वा। (हु) जुहवाञ्चकार, जुहाव वा। आर्यभाषा-अर्थ-(अमन्त्रे) मन्त्र विषय को छोड़कर (भीहीभहवाम्) भी, ह्री, भ, हु (धातो:) धातुओं से परे (अन्यतरस्याम्) विकल्प से (आम्) 'आम्' प्रत्यय होता है (च) और उन्हें (श्लुवत्) 'शुलु' प्रत्यय के समान द्वित्व कार्य होता है (लिटि) लिट्' प्रत्यय परे होने पर। उदा०-(भी) बिभयाञ्चकार, बिभाय वा । वह डर गया। (ही) जिहयाञ्चकार, जिहाय वा । वह लज्जित होगया। (भृ) बिभराञ्चकार, बभार वा । उसने धारण-पोषण किया। (हु) जुह्वाञ्चकार, जुहाव वा। उसने आहुति दी (यज्ञ किया)। सिद्धि-(१) बिभयाञ्चकार । भी+आम्। भी+भी+आम्। भि+भी+आम्। बि+भे+आम्। बिभयाम्+चकार । बिभयाञ्चकार। यहां निभी भये' (जु०प०) धातु से लिट्लकार में आम् प्रत्यय होता है। श्लुवत् कार्य-अतिदेश होने से श्लौ' (६।१।१०) से धातु को द्वित्व, ह्रस्व:' (७।४।५९) से For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.003297
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1997
Total Pages590
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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