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________________ ४५६ पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् उदा०-(लुङ्) शकलाऽङ्गुष्ठकोऽकरत् । अहं तेभ्योऽकरं नम: (यजु० १६।८) मैं उन्हें नमस्कार करता हूं। (लङ्) अग्निमद्य होतारमवृणीतायं यजमानः । इस यजमान ने आज होता' अग्नि (ऋत्विक्) का वरण किया है। (लिट्) अद्या ममार स ह्यः समानः (ऋ० १० १५५/५) जो आज मरता है । सिद्धि-(१) अकरत् । कृ+लुङ्। अट्+कृ+च्लि+ल। अ+कृ+अ+तिम् । अ+कर+अ+त् । अकरत्। यहां डुकृञ् करणे' (तना०उ०) धातु से इस सूत्र से वेद में वर्तमानकाल में 'लुङ्' प्रत्यय है। कृमदहिभ्यश्छन्दसि' (३।११५९) से 'चिल' के स्थान में 'अ' आदेश और 'ऋदृशोऽङि गुणः' (७ ।४।१६) से कृ' धातु को गुण होता है। ऐसे ही-अकरम् । (२) अवृणीत । वृ+लङ्। अट्+व+श्ना+त। अ+वृ+ना+त। अ+वृ+णी+त। अवृणीत। ____ यहां वृञ् वरणे (क्रया०उ०) धातु से इस सूत्र से वर्तमानकाल में लङ्' प्रत्यय है। क्रयादिभ्यः श्ना' (३।१४८१) से इना' विकरण-प्रत्यय और श्नाभ्यस्तयोरात:' (६।४।११२) से ईत्व होता है। (३) ममार । मृ+लिट् । मृ+तिम् । मृ+णल् । मृ+अ। मृ+मृ+अ। म+मार+अ। ममार। __यहां 'मह प्राणत्यागे' (भ्वा०आ०) धातु से इस सूत्र से वर्तमानकाल में 'लिट्' प्रत्यय है। 'म्रियतेनुंलिङोश्च' (१।३।६१) के नियम से परस्मैपद होता है। 'परस्मैपदानां णलतुसुस्' (३।४।८३) से 'तिप्' के स्थान में णल' आदेश, 'अचो णिति (७१२।११५) से मृ' धातु को वृद्धि, द्विर्वचनेऽचिं' (१।१।५८) से स्थानिवद्भाव होने से मृ' को द्वित्व, उरत्' (७।४।६६) से अभ्यास के 'ऋकार' को 'अकार' आदेश होता है। लेट् (लिङर्थे) (२) लिङर्थे लेट् ७। प०वि०-लिङर्थे ७१ लेट १।१ । स०-लिङोऽर्थ इति लिङर्थः, तस्मिन्-लिडर्थे (षष्ठीतत्पुरुषः) । अनु०-अन्यतरस्याम्, छन्दसि इति चानुवर्तते। अन्वय:-छन्दसि लिङर्थे धातोरन्यतरस्यां लेट् । अर्थ:-छन्दसि विषये लिङर्थे धातो: परो विकल्पेन लेट् प्रत्ययो भवति । हेतुहेतुमद्भावो विध्यादयश्च लिङा: सन्ति (३।३ ।१५६, १६१) । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003297
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1997
Total Pages590
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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