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________________ पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् यहां 'आङ्' उपसर्गपूर्वक 'गम्लु गतौ (भ्वा०प०) धातु से इस सूत्र से विधि अर्थ में लोट्' प्रत्यय है। 'इषुगमियमां छ:' (७।३।७७) से 'गम्' के 'म्' को छु' आदेश होता है। (३) भुक्ताम् । यहां भुज पालनाभ्यवहारयोः' (रुधा०आ०) धातु से इस सूत्र से निमन्त्रण/आमन्त्रण अर्थ में लोट्' प्रत्यय है। टित आत्मनेपदानां टेरे' (३।४।७९) से 'त' प्रत्यय के टि' भाग (अ) को 'ए' आदेश और 'आमेत:' (३।४।९०) से 'ए' को 'आम्' आदेश होता है। शेष पूर्ववत्। (४) उपनयतु । यहां उप' उपसर्गपूर्वक ‘णी प्रापणे (भ्वा०प०) धातु से इस सूत्र से अधीष्ट अर्थ में लोट्' प्रत्यय है। शेष कार्य करोतु' के समान है। (५) अध्ययै। अधि+इड्+लोट् । अधि+इ+इट् । अधि+इ+आ+इ। अधि+इ+आ+ए। अधि+ए+ऐ। अधि+अय्+ऐ। अध्य+अय्+ऐ। अध्ययै। यहां 'अधि' उपसर्गपूर्वक इङ् अध्ययने (अदा०आ०) धातु से इस सूत्र से सम्प्रश्न/प्रार्थन अर्थ में 'लोट्' प्रत्यय है। आडुत्तमस्य पिच्च' (३।४।९२) से 'आट्' आगम, 'टित आत्मनेपदानां टेरे' (३।४।७९) से एत्व, आटश्च' (६।१।८७) से वृद्धि, धातु को गुण और 'अय्' आदेश होता है। 'इको यणचिं' (६।१।७४) से 'यण' आदेश होता है। कृत्याः +लोट् (प्रैषादिषु) (४) प्रैषातिसर्गप्राप्तकालेषु कृत्याश्च ।१६३ । प०वि०- प्रैष-अतिसर्ग-प्राप्तकालेषु ७।३ कृत्याः १।३ च अव्ययपदम्। स०-प्रेषश्च अतिसर्गश्च प्राप्तकालश्च ते-प्रैषातिसर्गप्राप्तकाला:, तेषु-प्रैषातिसर्गप्राप्तकालेषु (इतरेतरयोगद्वन्द्व:)। अनु०-वर्तमाने, लोट् इति चानुवर्तते। अन्वय:-प्रैषातिसर्गप्राप्तकालेषु धातोर्वर्तमाने कृत्या लोट् च । अर्थ:-प्रैषातिसर्गप्राप्तकालेष्वर्थेषु धातो: परे वर्तमाने काले कृत्यसंज्ञका: प्रत्यया लोट् च प्रत्ययो भवति । उदा०-प्रेष:=प्रेरणा। अतिसर्ग: कामचारपूर्वकमाज्ञाप्रदानम् । प्राप्तकाल: समय: समागतः । (कृत्याः) भवता कट: करणीय:, कर्तव्यः, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003297
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1997
Total Pages590
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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