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________________ ४२२ पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् अर्थ:-यच्चयत्रयो: शब्दयोरुपपदयोर्धातो: परो लिङ् प्रत्ययो भवति, अनवक्लृप्त्यमर्षयोर्गम्यमानयोः । उदा०-(अनवक्तृप्ति:) नावकल्पयामि न सम्भावयामि यच्च तत्र भवान् शूद्रं न याजयेत् । यत्र तत्रभवान् शूद्रं न याजयेत्। (अमर्ष:) न मर्षयामि यच्च तत्रभवान् शूद्रं न याजयेत् । यत्र तत्रभवान् शूद्रं न याजयेत्। भूते काले क्रियातिपत्तौ सत्यां वा लुङ् प्रत्ययो भवति । नावकल्पयामि यच्च/यत्र तत्रभवान् शूद्रं नायाजयिष्यत्, न याजयेद् वा। भविष्यति काले क्रियातिपत्तौ सत्यां तु नित्यं लुङ् प्रत्ययो भवति । नावकल्पयामि यच्च/यत्र तत्रभवान् शूद्रं नायाजयिष्यत् । ___आर्यभाषा-अर्थ-(यच्चयत्रयोः) यच्च और यत्र शब्द उपपद होने पर (धातो:) धातु से परे (लिङ्) लिङ् प्रत्यय होता है (अनवक्लृप्त्यमर्षयोः) यदि वहां असम्भावना और अक्षमा अर्थ की प्रतीति हो। उदा०-(अनवक्तृप्ति) नावकल्पयामि न सम्भावयामि यच्च तत्रभवान् शूद्रं न याजयेत् । मैं यह सम्भावना नहीं करता हूं कि और जो आप शूद्र को यज्ञ नहीं करते हो/कराया/कराओगे। यत्र तत्रभवान् शूद्रं न याजयेत् । जहां आप शूद्र को यज्ञ नहीं कराते हो/कराया/कराओगे। (अमर्ष:) न मर्पयामि यच्च तत्रभवान् शूद्रं न याजयेत् । मैं यह सहन नहीं करता हूं कि और जो आप शूद्र को यज्ञ नहीं कराते हो/कराया/कराआगे। यत्र तत्रभवान् शूद्रं न याजयेत् । जहां आप शूद्र को यज्ञ नहीं कराते हो/कराया। कराओगे। भूतकाल में क्रिया की असिद्धि होने पर विकल्प से लङ् प्रत्यय होता है। नावकल्पयामि/न मर्षयामि/यच्च/यत्र तत्रभवान् शूद्रं नायाजयिष्यत्, न याजयेद् वा । मैं सम्भावना नहीं करता हूं/न सहन करता हूं कि और जो/जहां आपने शूद्र को यज्ञ नहीं कराया। भविष्यत्काल में क्रिया की असिद्धि होने पर तो नित्य लिङ् प्रत्यय होता है। नावकल्पयामि/न मर्षयामि/यच्च/यत्र भवान् शूद्रं नायाजयिष्यत् । मैं यह सम्भावना नहीं करता हूँ/न सहन करता हूं कि और जो/जहां आप शूद्र को यज्ञ नहीं कराओगे। सिद्धि-(१) याजयेत् । यहां पूर्वोक्त णिजन्त यज्' धातु से इस सूत्र से अनवक्तृप्ति और अमर्ष अर्थ में यच्च और यत्र शब्द उपपद होने पर लिङ्' प्रत्यय है। (२) अयाजयिष्यत् । यहां पूर्वोक्त लुङ्' प्रत्यय है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003297
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1997
Total Pages590
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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