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तृतीयाध्यायस्य तृतीयः पादः
४२१ आर्यभाषा-अर्थ- (जातुयदो:) जातु और यद् शब्द उपपद होने पर (धातो:) धातु से परे (लिङ्) लिङ् प्रत्यय होता है (अनवक्लत्यमर्षयोः) यदि वहां असम्भवना और अक्षमा अर्थ की प्रतीति हो।
उदा०- (अनवक्तृप्ति) नावकल्पयामि न सम्भावयामि जातु तत्र भवान् शूद्रं न याजयेत् । मैं यह सम्भावना नहीं करता हूं कि कब आप शूद्र को यज्ञ नहीं कराते हो/कराया/कराओगे। यत् तत्रभवान् शूद्रं न याजयेत् । मैं यह सम्भावना नहीं करता हूं कि जो आप शूद्र को यज्ञ करते हो/कराया/कराओगे।
(अमर्ष) न मर्षयामि जातु तत्रभवान् शूद्रं न याजयेत् । मैं यह सहन नहीं करता हूं कि कब आप शूद्र को यज्ञ नहीं कराते हो/कराया/कराओगे। न मर्षयामि यत् तत्रभवान् शूद्रं न याजयेत् । मैं यह सहन नहीं करता हूं कि जो आप शूद्र को यज्ञ नहीं कराते हो/कराया/कराओगे।
भूतकाल में क्रिया की असिद्धि होने पर विकल्प से लिङ् प्रत्यय होता है। नावकल्पयामि जातु/यत् तत्रभवान् शूद्रं नायाजयिष्यत, याजयेद् वा । मैं यह सम्भावना नहीं करता हूं कि आपने कब/जो शूद्र को यज्ञ नहीं कराया।
___ भविष्यत्काल में क्रिया की असिद्धि होने पर तो नित्य लुङ्' प्रत्यय होता है। नावकल्पयामि/न मर्षयामि, जातु/यत् तत्रभवान् शूद्रं नायाजयिष्यत् । मैं यह सम्भावना नहीं करता हूं/न सहन करता हूं कि कब/जो आप शूद्र को यज्ञ नहीं कराओगे।
सिद्धि-(१) याजयेत् । यहां पूर्वोक्त णिजन्त यज्' धातु से इस सूत्र से अनवक्तृप्ति और अमर्ष अर्थ में जातु और यद् शब्द उपपद होने पर लिङ्' प्रत्यय है।
(२) अयाजयिष्यत् । यहां पूर्वोक्त 'णिजन्त यज्' धातु से भूतकाल में क्रिया की असिद्धि होने पर वोताप्यो:' (३।३।१४१) के अधिकार में विकल्प से लुङ्' प्रत्यय है, पक्ष में लिङ् प्रत्यय होता है-याजयेत् । भविष्यत्काल में क्रिया की असिद्धि होने पर तो लिनिमित्ते लङ् क्रियातिपत्तौ' (३।३।१३९) से नित्य लुङ्' प्रत्यय है। लिङ् (कालत्रये)
(३६) यच्चयत्रयोः ११४८ प०वि०-यच्च-यत्रयोः ७।२।
स०-यच्चश्च यत्रश्च तौ-यच्चयत्रौ, तयो:-यच्चयत्रयो: (इतरेतरयोगद्वन्द्व:)।
अनु०-अनवक्लृप्त्यमर्षयोर्लिङ् इति चानुवर्तते । अन्वय:-यच्चयत्रयोर्धातोर्लिङ्, अनवक्लृप्त्यमर्षयोः ।
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