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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् यहां 'कन करणे (तनाउ०) धातु से भविष्यत्काल में लट् शेषे च' (१।३।१३) से लृट् प्रत्यय है। इस सूत्र से विकरण स्य प्रत्यय होता है। 'आर्धधातुकस्येड्वलादे:' (७।२ ।३५) से 'इट्' आगम और 'आदेशप्रत्यययो:' (८।३।५९) से षत्व' होता है।
(२) अकरिष्यत् । कृ+लुङ्। अट्+कृ+स्य+ल। अ+कृ+स्य+तिप् । अ+कृ+इट्+स्य+त् । अ+कर+इ+ष्य+त्। अकरिष्यत् ।
यहां डुकृञ् करणे' (तना०उ०) धातु से क्रियातिपत्ति में लिनिमित्ते लुङ् क्रियातिपत्तौं' (३।३।१३९) से लङ्' प्रत्यय है। लङ्लुङ्लवडुदात्तः' ६।४।७१) से 'अट्' आगम होता है। इस सूत्र से विकरण स्य' प्रत्यय होता है। इतश्च' (३।४।१००) से 'तिम्' के इकार का लोप होता है। शेष कार्य पूर्ववत् हैं।
(३) कर्ता । कृ+लुट् । कृ+तासि+ल। कृ+तास्+ति । कृ+तास्+डा। कृ+to+आ। कर+त्+आ। कर्ता।
यहां डुकृञ् करणे (तना०3०) धातु से अनद्यतन भविष्यत्काल में 'अनद्यतने लुट्' (३।३।१५) से 'लुट' प्रत्यय है। इस सूत्र से विकरण तासि' प्रत्यय होता है। 'लुट: प्रथमस्य डारोरस:' (२।४।८५) से 'तिप्' के स्थान में डा-आदेश है। वा०-डित्यभस्यापि टेर्लोप:' (वा ६ ।४।१४३) से 'तास्' के टिभाग (आस्) का लोप हो जाता है।
लेट्लकारः सिप्
(१) सिब् बहुलं लेटि।३४। प०वि०-सिप् १।१ बहुलम् ११ लेटि ७१। अनु०-धातोरित्यनुवर्तते। अन्वय:-धातोर्बहुलं सिप् लेटि। अर्थ:-धातो: परो बहुलं सिप् प्रत्ययो भवति लेटि प्रत्यये परत: ।
उदा०-(सिप्) जोषिषत्। तारिषत्। मन्दिषत्। न च सिब् भवति-पताति विद्युत् । (ऋ० ७ १२५ ।५१) उदधिं च्यावयाति (अथर्व० १०।१।१३) तुलना। ___आर्यभाषा-अर्थ-(धातो:) धातु से परे (बहुलम्) बहुलता से (सिप) सिप् प्रत्यय होता है (लेटि) लेट् प्रत्यय परे होने पर।
उदा०-(सिप्) जोषिषत्। वह प्रीति/सेवन करे। तारिषत् । वह पार करे। मन्दिषत् । वह स्तुति आदि करे। सिप् प्रत्यय नहीं-पताति विद्युत् । बिजली पड़े। उदधिं च्यावयाति । समुद्र को विचलित करे।
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