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तृतीयाध्यायस्य तृतीयः पादः सिद्धि-(१) अयाजयिष्यत् । यहां णिजन्त यज देवपूजासंगतिकरणदानेषु (भ्वा०उ०) धातु से विभाषा कथमि लिङ् च (३।३।१५१) से भूतकाल में लिङ् का निमित्त और क्रिया की असिद्धि होने पर 'लङ्' प्रत्यय है।
(२) याजयेत् । यहां पूर्वोक्त यज' धातु से पूर्वोक्त अर्थ में विकल्प पक्ष में लिङ्' प्रत्यय है।
विशेष-वैदिककाल में सबको यज्ञ कराया जाता था। मध्यकाल में वैदिकरीति का ह्रास होने से शूद्र को यज्ञ कराना बन्द कर दिया गया। अब पुन: महर्षि दयानन्द की दया से वैदिकधर्म के प्रचार से शूद्र को यज्ञ न कराना अच्छा नहीं माना जाता है। अत: ये उदाहरण वर्तमानकाल की दृष्टि से दिये हैं, मध्यकाल की दृष्टि से नहीं। काशिकावृत्ति आदि में मध्यकालीन उदाहरण दिये गये हैं। लट् (कालत्रये)
(३०) गर्हायां लडपि जात्वोः ।१४२। प०वि०-गर्हायाम् ७१ लट् १।१ अपि-जात्वो: ७।२।
स०-अपिश्च जातुश्च तौ-अपिजातू, तयो:-अपिजात्वोः (इतरेतरयोगद्वन्द्व:)।
अर्थ:-अपिजात्वोरुपपदयोर्धातोः परो लट् प्रत्ययो भवति, गर्हायां गम्यमानायाम्।
'वर्तमाने लट्' (३।२।११३) इति वर्तमाने काले लड् विहित: स कालसामान्ये न प्राप्नोति, इति कालत्रये लड् विधीयते।
उदा०-(अपि:) अपि तत्र भवान् शूद्रं न याजयति, (जातुः) जातु तत्र भवान् वृषतं न याजयति, गर्हामहे, अन्याय्यमेतत् ।
आर्यभाषा-अर्थ-(अपिजात्वो:) अपि और जातु शब्द उपपद होने पर (धातो:) धातु से परे (लट्) लट् प्रत्यय है (गर्हायाम्) यदि वहां निन्दा अर्थ की प्रतीति हो।
'वर्तमाने लट्' (३।२।११३) से वर्तमानकाल में लट्' प्रत्यय का विधान किया गया है, वह काल सामान्य में प्राप्त नहीं होता है, अत: इस सूत्र से तीनों कालों में लट' प्रत्यय का विधान किया गया है।
उदा०-(अपि) अपि नाम तत्र भवान् शूद्रं न याजयति, आपने शूद्र को यज्ञ नहीं कराया, कराते हो, कराओगे। (जातु) जातु नाम तत्रभवान् वृषलं न याजयति, गर्हामहे, अन्याय्येमतत् । कभी आपने शूद्र को यज्ञ नहीं कराया, कराते हो, कराओगे, हम इसकी निन्दा करते हैं, यह अन्याय है। क्योंकि यज्ञ का मानवमात्र को अधिकार है।
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