________________
३६२
पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम्
(पंखा ) । आपण: । लोग जहां आकर लेन-देन का व्यवहार करते हैं, वह दुकान । निगमः । जिसमें विद्वान् लोग निश्चित ज्ञान प्राप्त करते हैं, वह वेद ।
सिद्धि - (१) गोचरः । चर्+घ । चर्+अ । चर+सु । चरः । गो+चर: = गोचरः । यहां 'चर गतौं' (भ्वा०प०) धातु से इस सूत्र से अधिकरण कारक में 'घ' प्रत्यय है। तत्पश्चात् गौ और चर पदों में षष्ठीसमास होता है।
(२) संचर: । यहां 'सम्' उपसर्गपूर्वक पूर्वोक्त 'चर' धातु से इस सूत्र से करण कारक में 'घ' प्रत्यय है । 'समस्तृतीयायुक्तात्' (१1३1५४ ) से धातु में आत्मनेपद होता है।
(३) वह: । 'वह प्रापणे' (भ्वा०प०) धातु से करण करक में 'घ' प्रत्यय है। (४) व्रज: । 'व्रज गतौं' (भ्वा०प०) धातु से अधिकरण कारक में 'घ' प्रत्यय है। (५) व्यज: । 'वि' उपसर्गपूर्वक 'अज गतिक्षेपणयो:' (भ्वा०प०) धातु से करण कारक में 'घ' प्रत्यय है। निपातन से 'अजेर्व्यघञपो:' ( २/४/५६ ) से 'अज' के स्थान में 'वी' आदेश नहीं होता है।
(६) आपण: । 'आङ्' उपसर्गपूर्वक 'पण व्यवहारे स्तुतौ च' (भ्वा०आ०) धातु से अधिकरण कारक में 'घ' प्रत्यय है।
(७) निगम: । नि' उपसर्गपूर्वक 'गम्लृ गतौं' (भ्वा०प०) धातु से अधिकरण कारक में 'घ' प्रत्यय है।
घञ् (पुंसि) -
(८) अवे तृस्त्रोर्घञ् । १२० ।
प०वि०-अवे ७।१ तृ-स्त्रो: ६ | २ ( पञ्चम्यर्थे) घञ् १ ।१ । स०-तृश्च स्तृश्च तौ-तृस्त्रौ तयो:-तृस्त्रोः (इतरेतरयोगद्वन्द्वः) । अनु०-करणाधिकरणयोः, पुंसि, संज्ञायाम्, प्रायेण इति चानुवर्तते । अन्वयः-करणाधिकरणयोरवे तृस्तृभ्यां धातुभ्यां पुंसि प्रायेण घञ्
संज्ञायाम् ।
अर्थः-करणेऽधिकरणे च कारके अवे उपपदे तृ-स्तृभ्यां धातुभ्यां परः पुंलिङ्गे प्रायेण घञ् प्रत्ययो भवति, संज्ञायां गम्यमानायाम् ।
उदा०-(तृः) अवतरन्ति यस्मिन् स्नानार्थं सः - अवतार: । (स्तः) अवस्तृणन्ति येन सः - अवस्तार : ( जवनिका ) |
आर्यभाषा - अर्थ - (करणाधिकरणयोः) करण और अधिकरण कारक में (अवे) अव उपसर्ग उपपद होने पर (तृ-स्त्रो:) तृ और स्तृ (धातो:) धातु से परे (पुंसि) पुंलिङ्ग में
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org