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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् नन्
(७३) स्वपो नन्।६१। प०वि०-स्वप: ५ १ नन् ११ । अन्वय:-अकर्तरि कारके भावे च स्वपो धातोर्नन्।
अर्थ:-अकर्तरि कारके भावे चार्थे वर्तमानात्-स्वप्-धातो: परो नन् प्रत्ययो भवति।
उदा०-स्वप्नः।
आर्यभाषा-अर्थ- (अकीर) कर्ता से भिन्न (कारके) कारक में (च) और (भावे) भाव अर्थ में विद्यमान (स्वपः) स्वप् (धातो:) धातु से परे (नन्) नन् प्रत्यय होता है।
उदा०-स्वप्नः । शयन करना। सिद्धि-स्वप्नः । स्वप्+नन् । स्वप्+न। स्वप्न+सु । स्वप्नः ।
यहां त्रिष्वप् शये (अदा०प०) धातु से भाव में इस सूत्र से नन्' प्रत्यय है। नन्' प्रत्यय के नित्' होने से नित्यादिनित्यम्' (६।१।१९१) से आधुदात्त स्वर होता है। कि:
(७४) उपसर्गे घोः किः ।१२। प०वि०-उपसर्गे ७।१ घो: ५।१ कि: १।१।। अन्वय:-अकर्तरि कारके भावे च उपसर्गे घो: किः ।
अर्थ:-अकर्तरि कारके भावे चार्थे वर्तमानेभ्य: सोपसर्गेभ्यो घु-संज्ञकेभ्यो धातुभ्य: पर: कि: प्रत्ययो भवति ।
उदा०-(दा) प्रदि:। (धा) प्रधि: । अन्तर्धि: ।
आर्यभाषा-अर्थ- (अकीरे) कर्ता से भिन्न (कारके) कारक में (च) और (भावे) भाव अर्थ में विद्यमान (उपसर्गे) उपसर्गपूर्वक (घो:) घु-संज्ञक (धातो:) धातुओं से परे (कि:) कि प्रत्यय होता है।
उदा०-(दा) प्रदिः । प्रदान करना। (धा) प्रधिः । धारण-पोषण करना। अन्तर्धिः । अन्तर्धान होना (छुपना)।
सिद्धि-(१) प्रदिः । यहां प्र' उपसर्गपूर्वक 'डुदाञ् दाने' (जु०उ०) धातु से भाव अर्थ में इस सूत्र से कि' प्रत्यय है। कि' प्रत्यय के कित्' होने से 'आतो लोप इटि च (६।४।६४) से दा' के आ का लोप हो जाता है।
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