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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् अप्
(६०) अन्तर्घनो देशे।७८। प०वि०-अन्त: अव्ययपदम्, घन: १।१ देशे ७।१ । अनु०-अप, हन इति चानुवर्तते।
अन्वय:-अकर्तरि कारके भावे च अन्त:पूर्वाद् हनो धातोरप्, हनश्च घनो देशे।
अर्थ:-अकर्तरि कारके भावे चार्थे वर्तमानाद् हन्-धातो: परोऽप् प्रत्ययो भवति, हन: स्थाने च घन-आदेशो भवति, देशेऽभिधेये।
उदा०-अन्तर्घनो नाम देश: । संज्ञीभूतो वाहीकेषु देशविशेष उच्यते।
आर्यभाषा-अर्थ-(अकीर) कर्ता से भिन्न (कारके) कारक में (च) और (भावे) भाव अर्थ में विद्यमान (अन्त:) अन्त: शब्दपूर्वक (हन:) हन् (धातो:) धातु से परे (अप्) अप् प्रत्यय होता है और हन् के स्थान में (घन:) घन-आदेश होता है, दिशे) यदि वहां देश-विशेष का कथन हो।
उदा०-अन्तर्घनो नाम देश:। वाहीक जनपद में एक देश विशेष का नाम 'अन्तर्घन: है।
सिद्धि-अन्तर्घन: । अन्त+हन्+अप् । अन्त+घन्+अ । अन्तर्धन+सु । अन्तर्घन: ।
यहां अन्त: शब्दपूर्वक पूर्वोक्त हन्' धातु से अधिकरण कारक में तथा देश विशेष के वाच्यार्थ में इस सूत्र से 'अप्' प्रत्यय और 'हन्' के स्थान में 'घन' आदेश है। अन्तर्हण्यन्ते प्राणिनो यत्र स:-अन्तर्घनो देश: । जिसके अन्दर प्राणी मारे जाते हैं, उस देश विशेष का नाम 'अन्तर्घन:' है।
विशेष-कहीं-कहीं 'अन्तर्घणः' पाठ मिलता है। उसे भी पाणिनि के शिष्य साधु मानते हैं। पाणिनि मुनि ने अपने शिष्यों को दोनों प्रकार का पाठ पढ़ाया है। अप् (निपातनम्)
(६१) अगारैकदेशे प्रघणः प्रघाणश्च ।७६।
प०वि०-अगार-एकदेशे ७१ प्रघणः १।१ प्रघाण: ११ च अव्ययपदम्।
स०-अगारस्य एकदेश इति अगारैकदेशः, तस्मिन्-अगारैकदेशे (षष्ठीतत्पुरुषः)। अगार:-गृहम्।
अनु०-अप् इत्यनुवर्तते।
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