________________
तृतीयाध्यायस्य तृतीयः पादः
३५५ अन्वय:-अकर्तरि कारके भावे च प्रघण: प्रघाणश्च अप्, अगारैकदेशे।
अर्थ:-अकर्तरि कारके भावे चार्थे वर्तमान: प्रघण: प्रघाणश्च शब्दोऽप्-प्रत्ययान्तो निपात्यते, अगारैकदेशेऽभिधेये।
उदा०-प्रघण:। प्रघाणः । प्रविशद्भिर्जनैः पादै: प्रकर्षण हन्यत इति प्रघण:, प्रघाणो वा। “द्वारप्रदेशे द्वौ प्रकोष्ठावलिन्दौ आभ्यन्तर:, बाह्यश्च । तत्र बाह्यप्रकोष्ठे निपातनम्, नागारैकदेशमात्रे", इति पदमञ्जर्यां हरदत्तः।
__ आर्यभाषा-अर्थ-(अकीरे) कर्ता से भिन्न (कारके) कारक में (च) और (भावे) भाव अर्थ में विद्यमान (प्रघण:) प्रघण (च) और (प्रघाण:) प्रघाण शब्द (अप) अप्-प्रत्ययान्त निपातित हैं, (अगारैकदेशे) यदि वहां घर का एक देश वाच्यार्थ हो।
उदा०-प्रघण: प्रघाणः।
“घर के द्वार-प्रवेश पर दो प्रकोष्ठ (कमरे) होते हैं। उनमें एक अन्दर और एक बाहर होता है। बाह्य प्रकोष्ठ को प्रघण अथवा प्रघाण कहते हैं, अगार के एक देशमात्र को नहीं" (पं० हरदत्तमिश्रकृत पदमञ्जरी)।
सिद्धि-(१) प्रघण: । प्र+हन्+अप् । प्र+घन्+अ। प्र+घण्+अ। प्रघण+सु । प्रघणः ।
यहां प्र' उपसर्गपूर्वक पूर्वोक्त हन्' धातु से कर्म करण कारक में तथा अगार एक देश के वाच्यार्थ में इस सूत्र से 'अप्' प्रत्यय निपातित है। निपातन से हन्' के स्थान में 'घन' आदेश होता है। पूर्वपदात् संज्ञायामग:' (८।४।३) से णत्व' होता है।।
(२) प्रघाण: । यहां निपातन से हन्' धातु के घन्' आदेश को उपधावृद्धि होती है। शेष कार्य पूर्ववत् है। अप् (निपातनम्)
(६२) उद्घनोऽत्याधानम्।८०। प०वि०-उद्घन: ११ अत्याधानम् १।१। अनु०-अप् इत्यनुवर्तते। अन्वय:-अकर्तरि कारके भावे च उद्घनोऽप्, अत्याधानम् ।
अर्थ:-अकर्तरि कारके भावे चार्थे वर्तमान उद्घन: शब्दोऽप्-प्रत्ययान्तो निपात्यते, यदि तद् अत्याधानं भवति । यस्मिन् काष्ठे स्थापयित्वाऽन्यानि काष्ठानि तक्ष्यन्ते तदत्याधानमित्युच्यते।
उदा०-उद्घन: । उद् हन्यन्ते यस्मिन् काष्ठानि स उद्घनः ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org