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तृतीयाध्यायस्य तृतीयः पादः उदा०-वधश्चोराणाम् । वधो दस्यूनाम् ।
आर्यभाषा-अर्थ-(भावे) भाव अर्थ में विद्यमान (अनुपसर्गस्य) उपसर्ग से रहित (हन:) हन् (धातो:) धातु से परे (अप) अप् प्रत्यय होता है (च) और (हन:) हन् धातु के स्थान में (वध:) वध-आदेश होता है।
उदा०-वधश्चोराणाम् । चोरों का हनन (वध)। वधो दस्यूनाम् । दस्यु आर्येतर जनों का हनन (वध)।
सिद्धि-वधः । हन्+अप् । वध्+अ। वध+सु । वधः ।
यहां उपसर्ग से रहित 'हन हिंसागत्योः ' (अदा०प०) धात से केवल भाव अर्थ में इस सूत्र से 'अप्' प्रत्यय है और हन्' के स्थान में वध् आदेश है। अप्
(५६) मूर्ती घनः ७७। प०वि०-मूर्ती ७।१ घन: १।१। अनु०-अप्, हन इति चानुवर्तते।
अन्वय:-अकरि कारके भावे च हनो धातोरण, हनश्च घनो मूर्ती ।
अर्थ:-अकर्तरि कारके भावे चार्थे वर्तमानाद् हन्-धातो: परोऽप् प्रत्ययो भवति, हन स्थाने च घन-आदेशो भवति, मूर्तावभिधेयायाम् । मूर्ति: काठिन्यमित्यर्थः ।
उदा०-अभ्रघन: । दधिधनः।
आर्यभाषा-अर्थ-(अकर्तरि) कर्ता से भिन्न (कारके) कारक में (च) और (भावे) भाव अर्थ में विद्यमान (हन:) हन् (धातो:) धातु से परे (अप) प्रत्यय होता है और (हन:) हन् के स्थान में (घन:) घन-आदेश होता है, (मूर्ती) यदि वहां मूर्ति वाच्यार्थ हो। मूर्तिः कठोरता।
उदा०-अभ्रघनः। बादल की कठोरता सघनता। दधिघनः । दही की कठोरता-कड़ापन।
सिद्धि-अभ्रघन: । हन्+अप् । घन्+अ। घन्+सु । घनः ।
यहां हन हिंसागत्योः' (अदा०प०) धातु से भाव अर्थ में तथा मूर्ति-भाव वाच्यार्थ में इस सूत्र से 'अप' प्रत्यय और हन्' के स्थान में 'घन' आदेश है। अभ्रस्य घन इति अभ्रघन: (षष्ठीतत्पुरुषः)। ऐसे ही-दधिधनः ।
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