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________________ ३४६ तृतीयाध्यायस्य तृतीयः पादः सिद्धि-ग्लहः । ग्रह+अप। ग्लह+अ। ग्लह+सु । ग्लहः। यहां ग्रह उपादाने (क्रया०प०) धातु से भाव में तथा अक्षक्रीडा विषय में इस सूत्र से 'अप्' प्रत्यय है। निपातन से ग्रह धातु के 'र' को 'ल' आदेश हो जाता है। अप्' प्रत्यय तो 'ग्रहवदनिश्चिगमश्च' (३।३।५८) से सिद्ध था। यह लत्व के लिये निपातन किया गया है। अप् (५३) प्रजने सर्तेः ।७१। प०वि०-प्रजने ७१ सर्ते: ५।१। अनु०-अप् इत्यनुवर्तते। अन्वय:-अकर्तरि कारके भावे च प्रजने सर्तेर्धातोरप् । अर्थ:-अकर्तरि कारके भावे चार्थे प्रजने च विषये वर्तमानात् सर्ति-धातो: परोऽप् प्रत्ययो भवति। प्रजनम् प्रथमं गर्भग्रहणम् । उदा०-गवामुपसर: । स्त्रीगवीषु पुंगवानां गर्भाधानाय प्रथममुपसरणम्, उपसर इत्युच्यते। आर्यभाषा-अर्थ-(अकीर) कर्ता से भिन्न (कारके) कारक में (च) और (भावे) भाव अर्थ में तथा (प्रजने) प्रथम गर्भ-ग्रहण विषय में विद्यमान (सर्ते:) स (धातो:) धातु से परे (अप्) अप् प्रत्यय होता है। उदा०-गवामुपसरः । साण्डों का गर्भाधान के लिये गौओं में प्रथम बार उपसरण होना उपसर' कहाता है। सिद्धि-उपसरः । उप+सृ+अप् । उप+सर्+अ । उपसर+सु। उपसरः । यहां 'उप' उपसर्गपूर्वक सृ गतौ' (भ्वा०प०) धातु से प्रजन विषय में इस सूत्र से 'अप' प्रत्यय है। सार्वधातुकार्धधातुकयो:' (७।३।८४) से सृ' धातु को गुण होता है। अप् (५४) हः सम्प्रसारणं च न्यभ्युपविषु।७२। प०वि०-ह: ५।१ सम्प्रसारणम् १।१ च अव्ययपदम् नि-अभि-उप-विषु ७।३। ____ स०-निश्च अभिश्च उपश्च विश्च ते-न्यभ्युपवयः, तेषु-न्यभ्युपविषु (इतरेतरयोगद्वन्द्वः)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003297
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1997
Total Pages590
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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