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________________ ३४२ पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् अप्+घञ् (४४) स्वनहसोर्वा ।६२। प०वि०-स्वन-हसो: ६।२ (पञ्चम्यर्थे) वा अव्ययपदम्। स०-स्वनश्च हस् च तौ स्वनहसौ, तयो:-स्वनहसो: (इतरेतरयोगद्वन्द्वः)। अनु०-अप्, अनुपसर्गे इति चानुवर्तते। अन्वय:-अकर्तरि कारके भावे चानुपसर्गे स्वनहसिभ्यां धातुभ्याम् अप्। अर्थ:-अकर्तरि कारके भावे चार्थे वर्तमानाभ्याम् अनुपसर्गाभ्यां स्वनहसिभ्यां धातुभ्यां परोऽप् प्रत्ययो भवति । पक्षे घञ् प्रत्ययो भवति । उदा०-(स्वन:) स्वन: (अप) । स्वान: (घञ्) । (हस्) हस: (अप्) । हास: (घञ्)। आर्यभाषा-अर्थ-(अकीर) कर्ता से भिन्न (कारके) कारक में (च) और (भावे) भाव अर्थ में विद्यमान (अनुपसर्गे) उपसर्ग से रहित (स्वनहसोः) स्वन, हस् (धातो:) धातुओं से परे (वा) विकल्प से (अप्) प्रत्यय होता है। विकल्प पक्ष में घञ् प्रत्यय होता है। उदा०- (स्वनः) स्वन: (अप)। स्वान: (घ)। अलङ्कृत करना। (हस्) हस: (अप)। हास: (घ)। हंसना। सिद्धि-(१) स्वनः । यहां उपसर्गरहित स्वन अवतंसने (भ्वा०प०) धातु से भाव में इस सूत्र से 'अप्' प्रत्यय है। (२) स्वानः । पूर्वोक्त स्वन' धातु से विकल्प पक्ष में 'भावे' (३।३।१८) से 'घञ्' प्रतयय है। 'अत उपधाया:' (७।२।११६) से 'स्वन्' धातु को उपधावृद्धि होती है। (३) हस: । हसे हसने' (भ्वा०प०) धातु से पूर्वोक्त 'अप्' प्रत्यय है। (४) हास: । पूर्वोक्त हस्' धातु से पूर्ववत् 'घञ्' प्रत्यय है। अप्+घञ् ___ (४५) यमः समुपनिविषु च ।६३ । प०वि०-यम: ५।१ सम्-उप-नि-विषु ७।३ च अव्ययपदम् । स०-सम् च उपश्च निश्च विश्च ते समुपनिवय:, तेषु-समुपनिविषु (इतरेतरयोगद्वन्द्वः)। __ अनु०-अप्, अनुपसर्गे वा इति चानुवर्तते। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003297
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1997
Total Pages590
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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