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तृतीयाध्यायस्य तृतीयः पादः आर्यभाषा-अर्थ-(अकतीर) कर्ता से भिन्न (कारके) कारक में (च) और (भावे) भाव अर्थ में विद्यमान (नौ) 'नि' उपसर्गपूर्वक (अद:) अद् (धातो:) धातु से परे (ण:) ण (च) और (अप) अप् प्रत्यय होता है।
उदा०-(ण) न्यादः । निकृष्ट भोजन। (अप) निघस: । घटिया भोजन। सिद्धि-(१) न्याद: । नि+अद्+ण। नि+आद्+अ। न्याद+सु । न्यादः ।
यहां नि' उपसर्गपूर्वक 'अद् भक्षणे' (अदा०प०) धातु से इस सूत्र से 'ण' प्रत्यय है। 'अत उपधाया:' (७।२।११६) से 'अद्' धातु को उपधावृद्धि होती है।
(२) निघस: । नि+अद्+अप् । नि+घस्तृ+अ। नि+घस्+अ। निघस+सु । निघसः ।
यहां 'नि' उपसर्गपूर्वक पूर्वोक्त 'अद्' धातु से इस सूत्र से 'अप' प्रत्यय है। घजपोश्च' (२।४।३८) से 'अद्' धातु के स्थान में 'घस्तृ' आदेश होता है। अप्
(४३) व्यधजपोरनुपसर्गे।६१। प०वि०-व्यध-जपो: ६।२ (पञ्चम्यर्थे) अनुपसर्गे ७१।
स०-व्यधश्च जप् च तौ व्यधजपौ, तयो:-व्यधजपो: (इतरेतरयोगद्वन्द्व:)। न विद्यते उपसर्गो यस्य सोऽनुपसर्गः, तस्मिन्अनुपसर्गे (बहुव्रीहिः)।
अनु०-अप् इत्यनुवर्तते। अन्वय:-अकर्तरि कारके भावे चानुपसर्गे व्यधजपिभ्यां धातुभ्याम् अप् ।
अर्थ:-अकर्तरि कारके भावे चार्थे वर्तमानाभ्याम् अनुपसर्गाभ्यां व्यधजपिभ्यां धातुभ्यां परोऽप् प्रत्ययो भवति ।
उदा०-(व्यध:) व्यध: । (जप्) जपः।
आर्यभाषा-अर्थ-(अकतरि) कर्ता से भिन्न (कारके) कारक में (च) और (भावे) भाव अर्थ में विद्यमान (अनुपसर्गे) उपसर्ग से रहित, (व्यधजपो:) व्यध, जप (धातो:) धातुओं से परे (अप्) अप् प्रत्यय होता है।
उदा०-(व्यध) व्यधः । शिकार करना। (जप) जपः । प्रणव ओ३म् का जप करना।
सिद्धि-(१) व्यधः । व्यध्+अप्। व्यध+सु । व्यधः ।
यहां उपसर्गरहित व्यध ताडने (दि०प०) धातु से भाव में इस सूत्र से 'अप्' प्रत्यय है।
(२) जपः। जप मानसे च' (भ्वा०प०) पूर्ववत् ।
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