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तृतीयाध्यायस्य तृतीयः पादः (२) प्रवरः । प्र+वृ+अम् । प्र+व+अ। प्रवर+सु। प्रवरः ।
यहां 'प्र' उपसर्गपूर्वक पूर्वोक्त वृ' धातु से पूर्वोक्त अर्थ में विकल्प पक्ष में 'ग्रहवृदृनिश्चिगमश्च' (३।३।५८) से 'अप्' प्रत्यय है। 'सार्वधातुकार्धधातुकयो:' (७।३।८४) से वृ' धातु को गुण होता है।
घञ्
(३७) परौ भुवोऽवज्ञाने।५५ । प०वि०-परौ ७१ भुव: ५।१ अवज्ञाने ७।१ । अनु०-विभाषा इत्येवानुवर्तते।
अन्वयः-अकर्तरि कारके भावे च परौ भुवो धातोर्विभाषा घञ् अवज्ञाने।
अर्थ:-अकर्तरि कारके भावे चार्थे वर्तमानात् परि-पूर्वाद् भू-धातो: परो विकल्पेन घञ् प्रत्ययो भवति, अवज्ञाने गम्यमाने। पक्षेऽप् प्रत्ययो भवति । अवज्ञानम् असत्कारः ।
उदा०-परिभावो देवदत्तस्य (घञ्) । परिभवो देवदत्तस्य (अप्) । __ आर्यभाषा-अर्थ-(अकीरे) कर्ता से भिन्न (कारके) कारक में (च) और (भावे) भाव अर्थ में विद्यमान (परौ) परि-उपसर्गपूर्वक (भुव:) भू (धातो:) धातु से परे (विभाषा) विकल्प से (घञ्) घञ् प्रत्यय होता है, यदि वहां (अवज्ञाने) असत्कार अर्थ प्रकट हो। विकल्प पक्ष में अप् प्रत्यय होता है।
उदा०-परिभावो देवदत्तस्य (घञ्) । देवदत्त का असत्कार (अपमान)। परिभवो देवदत्तस्य (अप्) । अर्थ पूर्ववत् है।
सिद्धि-(१) परिभाव: । परि+भू+घञ् । परि+भौ+अ। परि+भाव्+अ । परिभाव+सु। परिभावः।
यहां प्र' उपसर्गपूर्वक 'भू सत्तायाम्' (भ्वा०प०) धातु से अवज्ञान अर्थ की प्रतीति में इस सूत्र से घञ्' प्रत्यय है। 'अचो णिति' (७।२।११५) से भू-धातु को वृद्धि होती है।
(२) परिभवः । परि+भू+अप् । परि+भो+अ। परि+भव्+अ । परिभव+सु। परिभवः ।
यहां प्र' उपसर्गपूर्वक पूर्वोक्त 'भू' धातु से पूर्वोक्त अर्थ में विकल्प पक्ष में ऋदोरम्' (३।३।५६) से 'अप्' प्रत्यय है। सार्वधातुकार्धधातुकयो:' (७।३।८४) से 'भू' धातु को गुण होता है।
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