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तृतीयाध्यायस्य तृतीयः पादः
३२६ आर्यभाषा-अर्थ-(भावे) भाव अर्थ में विद्यमान (धातोः) धातु से परे (इनुण) इनुण प्रत्यय होता है, यदि वहां (अभिविधौ) अभिव्याप्ति अर्थ प्रकट हो।
उदा०-सांकूटिनं वर्तते। सब ओर दहन हो रहा है (आग लगी हुई है)। सांराविणं वर्तते । सब ओर शोर हो रहा है। सांद्राविणं वर्तते । सब ओर भगदड़ मच रही है।
___ सिद्धि-(१) सांकूटिनम् । सम्+कूट+इनुण । सम्+कूट+इन्। सांकूटिन्+अण् । सांकुटिन्+अ। सांकटिन्+सु । सांकूटिनम्।
यहां सम्' उपसर्गपूर्वक कूट परितापे, परिदाह इत्येके' (चु०आ०) धातु से भाव में तथा अभिविधि-अभिव्याप्ति की प्रतीति में इस सूत्र से 'इनुण' प्रत्यय है। तत्पश्चात् 'अणिनुणः' (५ ।४।१५) से स्वार्थ में अण्' प्रत्यय होता है। इनण्यनपत्ये' (६।४।१६४) से प्रकृतिभाव होने से नस्तद्धिते' (६।४।१४४) से टि-लोप का अभाव है। यहां सम्' उपसर्ग अभिविधि-अभिव्याप्ति का द्योतक है।
(२) सांराविणम् । सम्' उपसर्गपूर्वक ‘रु शब्दे' (अदा०प०) । (३) सांद्राविणम् । 'सम्' उपसर्गपूर्वक द्रु गतौ' (भ्वा०प०)।
घञ्
(२७) आक्रोशेऽवन्योर्ग्रहः।४५। प०वि०-आक्रोशे ७।१ अव-न्यो: ७ ।२ ग्रह: ५।१ । स०-अवश्च निश्च तौ-अवनी, तयो:-अवन्योः (इतरेतरयोगद्वन्द्व:)।
अनु०-अत्र दृष्टानुवृत्तिसामर्थ्याद् घञ् इत्यनुवर्तते, नाऽनन्तर इनुण् प्रत्ययः ।
अन्वय:-अकर्तरि कारके भावे च अवन्योर्ग्रहो धातोर्घञ् आक्रोशे।
अर्थ:-अकर्तरि कारके भावे चार्थे, अव-निपूर्वाद् ग्रह-धातो: परो घञ् प्रत्ययो भवति, आक्रोशे गम्यमाने । आक्रोश:=शपनम्, अनिष्टाशंसनमित्यर्थः।
उदा०-(अव:) अवग्राहो हन्त ते वृषल ! भूयात् । (नि:) निग्राहो हन्त ते वृषल ! भूयात्।
__ आर्यभाषा-अर्थ-(अकीरे) कर्ता से भिन्न (कारके) कारक में (च) और (भावे) भाव अर्थ में विद्यमान (अव-न्योः) अव और नि उपसर्गपूर्वक (ग्रह:) ग्रह (धातो:) धातु से परे (घञ्) घञ् प्रत्यय होता है, यदि वहां (आक्रोशे) अनिष्ट की इच्छा प्रकट हो।
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