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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम्
उदा०-1 (अव) अवग्राहो हन्त ते वृषल ! भूयात् । कोई वृषल (नीच) को कोप में कहता है- हे नीच ! तेरा अवग्राह-अभिभव (अवमान) हो। (नि) निग्राहो हन्त ते भूयात् । हे नीच ! तुझे निग्राह = बाध ( दुःख) हो । यहां हन्त शब्द कोप का द्योतक है।
वृषल !
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सिद्धि - (१) अवग्राहः । अव+ग्रह+घञ् । अव+ग्राह्+अ । अवग्राह+सु। अवग्राहः । यहां 'अव' उपसर्गपूर्वक 'ग्रह उपादाने' (क्रया०प०) धातु से भाव में तथा आक्रोश की प्रतीति में इस सूत्र से घञ् प्रत्यय है । 'अत उपधाया:' (७/२/११६ ) से 'ग्रह' धातु को उपधावृद्धि होती है।
(२) निग्राहः । नि' उपसर्गपूर्वक पूर्वोक्त 'ग्रह' धातु से पूर्ववत् ।
घञ्
(२८) प्रे लिप्सायाम् । ४६ ।
प०वि० - प्रे ७ । १ लिप्सायाम् ७ । १ । लब्धुमिच्छा=लिप्सा, तस्याम्-लिप्सायाम् ।
अनु०- घञ्, ग्रह इति चानुवर्तते ।
अर्थ :- कर्तरि कारके भावे चार्थे प्र-पूर्वाद् ग्रह- धातोः परो घञ् प्रत्ययो भवति, लिप्सायां गम्यमानायाम्।
उदा०-पात्रप्रग्राहेण चरति भिक्षुः पिण्डार्थी । स्रुवप्रग्राहेण चरति द्विजो दक्षिणार्थी
आर्यभाषा - अर्थ - (अकर्तीर) कर्ता से भिन्न (कारके) कारक में (च) और (भावे) भाव अर्थ में विद्यमान (प्र) प्र-उपसर्गपूर्वक (ग्रहः ) ग्रह (धातो: ) धातु से परे (घञ्) घञ् प्रत्यय होता है ।, यदि वहां (लिप्सायाम्) किसी पदार्थ को प्राप्त करने की इच्छा प्रकट हो । उदा०-पात्रप्रग्राहेण चरति भिक्षुः पिण्डार्थी । पिण्ड चूर्मा आदि अन्न का इच्छुक भिक्षु भिक्षापात्र लेकर घूम रहा है । स्रुवप्रग्राहेण चरति द्विजो दक्षिणार्थी । दक्षिणा का इच्छुक ब्राह्मण स्रुव (चमस) लेकर घूम रहा है कि कोई यज्ञ करा ले और उसे दक्षिणा मिल जाये ।
सिद्धि - पात्रप्रग्राहम् । प्र+ग्रह्+घञ् । प्र+ग्राह + अ । प्रग्राह+ सु । प्रग्राहम् । पात्र + प्रग्राहम् = पात्रप्रग्राहम् ।
यहां पात्र उपपद तथा 'प्र' उपसर्गपूर्वक 'ग्रह उपादाने' (क्रया०प०) धातु से भाव में तथा लिप्सा की प्रतीति में इस सूत्र से 'घञ्' प्रत्यय है। 'अत उपधाया:' ( ७ । २ । ११६ ) से 'ग्रह' धातु को उपधावृद्धि होती है। ऐसे ही - स्रुवप्रग्राहम् ।
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