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________________ ३२८ पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् स०-कर्म=क्रिया । व्यतिहार:=परस्परं करणम् । कर्मणो व्यतिहार इति कर्मव्यतिहारः, तस्मिन्-कर्मव्यतिहारे (षष्ठीतत्पुरुष:)। __ अन्वय:-अकर्तरि च कारके भावे च कर्मव्यतिहारे धातोर्णच स्त्रियाम् । अर्थ:-अकर्तरि कारके भावे चार्थे कर्मव्यतिहारे वर्तमानाद् धातो: परो णच् प्रत्ययो भवति, स्त्रियामभिधेयायाम्। उदा०-व्यावक्रोशी वर्तते । व्यावलेखी वर्तते । व्यावहासी वर्तते। आर्यभाषा-अर्थ-(अकीर) कर्ता से भिन्न (कारके) कारक में (च) और (भावे) भाव अर्थ में तथा (कर्मव्यतिहारे) क्रिया के परस्पर करने में विद्यमान (धातोः) धातु से परे (णच्) णच् प्रत्यय होता है (स्त्रियाम्) स्त्रीलिङ्ग में। उदा०-व्यावक्रोशी वर्तते। परस्पर आहान हो रहा है। व्यावलेखी वर्तते । परस्पर लेखन-कार्य चल रहा है। व्यावहासी वर्तते। परस्पर हास्य चल रहा है। सिद्धि-(१) व्यावक्रोशी। वि+अव+कुश्+णच् । वि+अव+कोश्+अ । व्यवक्रोश+अञ्। व्यावक्रोश+डीप् । व्यावक्रोशी+सु । व्यावक्रोशी। यहां वि-अव उपसर्गपूर्वक 'क्रुश आहाने' (भ्वा०प०) धातु से भाव में तथा कर्मव्यतिहार में इस सूत्र से 'णच्' प्रत्यय है। तत्पश्चात् ‘णच: स्त्रियामञ् (५।४।१४) से स्वार्थ में 'अज्' प्रत्यय होता है। स्त्रीलिङ्ग में 'टिड्ढाणञ्० (४।१।१५) से डीप्' प्रत्यय होता है। (२) व्यावलेखी। लिख अक्षरविन्यासे' (भ्वा०प०) पूर्ववत्।। (३) व्यावहासी। हसे हसने (भ्वा०प०)। पूर्ववत् । न कर्मव्यतिहारे (८।३।६) से ऐच्' आदेश का निषेध होने से तद्धितष्वचमादेः' (८।२।११७) से आदिवृद्धि होती है। इनुण (२६) अभिविधौ भाव इनुण्।४४। प०वि०-अभिविधौ ७।१ भावे ७।१ इनुण १।१ । स०-अभिविधि:-अभिव्याप्ति:, तस्मिन्-अभिविधौ। अन्वय:-भावे धातोरिनुण अभिविधौ । अर्थ:-भावेऽर्थे वर्तमानाद् धातो: परो इनुण् प्रत्ययो भवति, अभिविधौ गम्यमाने। उदा०-सांकूटिनं वर्तते । सांराविणं वर्तते। सांद्राविणं वर्तते । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003297
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1997
Total Pages590
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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