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तृतीयाध्यायस्य तृतीयः पादः स०-उत्तरे च अधरे च ते उत्तराधरा:, उत्तराधराणां भाव औत्तराधर्यम्, न औत्तराधर्यमिति अनौत्तराधर्यम्, तस्मिन्-अनौत्तराधर्ये (इतरेतरयोगद्वन्द्वगर्भितनञ्तत्पुरुषः)।
अनु०-घञ्, चे:, आदेश्च क इति चानुवर्तते।
अन्वय:-अकर्तरि कारके भावे चानौत्तराधर्ये संघे चेर्धातोर्घन्, आदेश्च कः।
अर्थ:-अकर्तरि कारके भावे चार्थे, औत्तराधर्यवर्जिते संघे च वाच्ये वर्तमानात् चि-धातो: परो घञ् प्रत्ययो भवति, चिधातोरादेश्चकारस्य स्थाने च ककारादेशो भवति।
उदा०-भिक्षुकनिकाय: । ब्राह्मणनिकाय: । वैयाकरणनिकाय: ।
प्राणिनां समुदाय: सङ्घ इत्युच्यते । स च द्वाभ्यां प्रकाराभ्यां भवति । समानधर्मनिवेशेन, औत्तराधर्येण च । अत्रौत्तरार्धयनिषेधात् समानधर्मनिवेशेन निष्पन्न: सङ्घो गृह्यते।
आर्यभाषा-अर्थ-(अकीरे) कर्ता से भिन्न (कारके) कारक में (च) और (भावे) भाव अर्थ में तथा औत्तराधर्य से रहित संघ वाच्यार्थ में विद्यमान (चे:) चि (धातो:) धातु से परे (घञ्) घञ् प्रत्यय होता (च) और (आदे:) चि' धातु के आदि चकार के स्थान में (क:) ककार आदेश होता है।
उदा०-भिक्षुकनिकाय: । भिक्षुकों का संघ। ब्राह्मणनिकाय: । ब्राह्मणों का संघ। वैयाकरणनिकाय: । वैयाकरणों के संघ ।
सिद्धि-निकाय: । यहां नि' उपसर्गपूर्वक पूर्वोक्त 'चि' धातु से औत्तराधर्य से रहित संघ अर्थ में इस सूत्र से 'घञ्' प्रत्यय है। शेष कार्य पूर्ववत् है।
विशेष-संघ-प्राणियों का समुदाय संघ कहाता है। वह दो प्रकार से बनता है। पहला समानधर्म में प्रवेश करने से तथा दूसरा सूअर आदि के समान ऊपर नीचे पड़ने से। इसे औत्तराधर्य कहते हैं। यहां औत्तराधर्य से संघ का निषेध किया गया है तथा समानधर्म में प्रवेश से निष्पन्न संघ का ग्रहण किया गया है।
णच्
(२५) कर्मव्यतिहारे णच् स्त्रियाम् ।४३। प०वि०-कर्म-व्यतिहारे ७।१ णच् १।१ स्त्रियाम् ७।१।
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