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________________ ३१६ पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् आर्यभाषा-अर्थ-(अकतरि) कर्ता से भिन्न (कारके) कारक में (च) और भाव अर्थ में विद्यमान (अवोदो:) अव और उत् उपसर्गपूर्वक (निय:) नी (धातो:) धातु से परे (घञ्) घञ् प्रत्यय होता है। उदा०-(अव) अवनायः। अवनति करना। (उत्) उन्नाय: । उन्नति करना। सिद्धि-(१) अवनायः । अव+नी+घञ् । अव+नै+अ। अव+वाय+अ। अवनाय+सु। अवनायः। यहां अव उपसर्गपूर्वक ‘णी प्रापणे' (भ्वा०उ०) धातु से भाव में इस सूत्र से 'घञ्' प्रत्यय है। 'अचो णिति' (७।२।११५) से नी' धातु को वृद्धि होती है। (२) उन्नाय: । उत् उपसर्गपूर्वक 'नी' धातु से पूर्ववत् । घञ् (६) प्रे द्रुस्तुस्रुवः ।२७। प०वि०-प्रे ७।१ द्रु-स्तु-स्रुव: ५।१। स०-द्रुश्च स्तुश्च स्रुश्च एतेषां समाहार:-द्रस्तुत्रु, तस्मात्-द्रस्तुस्रुव: (समाहारद्वन्द्वः)। अनु०-घञ् इत्यनुवर्तते। अन्वय:-अकर्तरि कारके भावे च प्रे द्रुस्तुस्रुवो धातोर्घञ् । अर्थ:-अकर्तरि कारके भावे चार्थे वर्तमानेभ्य: प्र-पूर्वेभ्यो द्रुस्तुत्रुभ्यो धातुभ्य: परो घञ् प्रत्ययो भवति । उदा०-(दुः) प्रद्राव: । (स्तु:) प्रस्ताव: । (स्रुः) प्रस्राव: । आर्यभाषा-अर्थ-(अकीरे) कर्ता से भिन्न (कारके) कारक में (च) और (भावे) भाव अर्थ में विद्यमान (H) प्र-उपसर्गपूर्वक (दुस्तुनुव:) दु, स्तु, त्रु (धातो:) धातुओं से परे (घञ्) घञ् प्रत्यय होता है। उदा०-(हु) प्रद्राव: । पिघलना। (स्तु) प्रस्तावः । पेश करना। (खु) प्रस्रावः । झरना। सिद्धि-(१) प्रद्राव: । प्र+दु+घञ् । प्र+द्रौ+अ । प्र+द्राव्+अ । प्रद्राव+सु । प्रद्राव: । यहां 'प्र' उपसर्गपूर्वक दु गतौ' (भ्वा०प०) धातु से भाव में इस सूत्र से 'घ' प्रत्यय है। 'अचो णिति' (७।२।११५) से द्रु' धातु को वृद्धि होती है। (२) प्रस्ताव: । 'ष्टुञ स्तुतौ' (अदा०उ०) पूर्ववत् । (३) प्रत्राव: । त्रु गतौ' (भ्वा०प०) पूर्ववत्। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003297
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1997
Total Pages590
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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